जिन्होंने परमात्मा को हर सांस में जिया, जिन्होंने परमात्मा के ऐश्वर्य को अपने जीवन में पाया, ऐसे सुधर्मा स्वामी ने महावीर का वह स्वरुप दिखाया है, जो इन्द्रियों से नहीं देखा जा सकता है। उन्होंने इस अद्वितीय स्वरुप को पुच्छिंसुणं के माध्यम से लालगंगा पटवा भवन में प्रदर्शित किया है, जहां उपाध्याय प्रवर प्रवीण ऋषि के मुखारविंद से धर्मप्रेमी पुच्छिंसुणं की आराधना का आनंद लेते हैं। इस अद्भुत क्षण की जानकारी रायपुर श्रमण संघ के अध्यक्ष ललित पटवा ने प्रदान की है। सोमवार को पुच्छिंसुणं (वीर स्तुति) आराधना के 7वें दिवस धर्मसभा को संबोधित करते हुए उपाध्याय प्रवर ने कहा कि किसी को श्रेष्ठ कहना हो तो दूसरे को नीचा नहीं दिखाना चाहिए। हमें सुधर्मा स्वामी से सीखना चाहिए कि किसी की प्रशंसा करनी हो तो जरुरी नहीं है कि दूसरे व्यक्ति को नीचा दिखाएं। सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि परमात्मा हाथियों में ऐरावत के समान हैं। उन्होंने बाकी पुण्यात्माओं के अस्तित्व को स्वीकार किया, परमात्मा ऐरावत हैं, और बाकी हाथी हैं। ऐरावत हाथी सफ़ेद होता है, चतुर्दंत होता है, उसकी अपनी गरिमा है। निर्वाण की चर्चा सभी धर्मों में है। निर्वाण का अर्थ यहाँ शांति दिया गया है। और निर्वाण का जो तत्त्वज्ञान देते हैं उन्हें निर्वाण के वादी कहते हैं। निर्वाण सबको चाहिए, केवल सुख में संतुष्ट नहीं है। इसलिए संत पूछते हैं सुख-शांति में हैं? जीवन में सुख के साथ शांति भी चाहिए, और इसकी चर्चा सभी करते हैं। लेकिन महावीर इसकी चर्चा कैसे करते हैं? सुधर्मा स्वामी बताते हैं कि बाकी लोग शांति की चर्चा हाथियों के समान करते हैं, लेकिन महावीर ऐरावत के समान करते हैं। 'सीहो मियाणं सलिलाण गंगा' उपाध्याय प्रवर ने कहा की कोई खरगोश बनकर चर्चा करता है, कोई बाघ बनकर, लेकिन महावीर सिंह बनकर चर्चा करते हैं। सिंह कभी दूसरे के शिकार पर हाथ नहीं डालता है, वह स्वअर्जित पर ही जीता है। इसलिए प्रभु महावीर हों या कोई भी तीर्थंकर हो वे अपने पूर्व तीर्थंकर के संघ में दीक्षा नहीं लेते। भगवान पार्श्वनाथ का संघ था, परंपरा थी, संघ में कई प्रकार के ज्ञानी थे, लेकिन प्रभु महावीर ने वहां दीक्षा नहीं ली। अगर वहां दीक्षा लेते तो भगवान पार्श्वनाथ की परंपरा को मानना पड़ता, उसका अनुसरण करना पड़ता। लेकिन कोई तीर्थंकर अनुयायी नहीं होता है। जो अनुयायी बन गया वो तीर्थंकर नहीं बन सकता। तीर्थंकर कभी किसी का अनुसरण नहीं करते हैं। सुधर्मा स्वामी ने महावीर को सिंह कहा है, बिना सिंह बने कोई समाज का नेतृत्व नहीं कर सकता। सिंह निडर होता है, और महावीर को किसी का भय नहीं है। सलिलाण गंगा : सुधर्मा स्वामी ने नदियों में गंगा नदी का जिक्र किया है, और किसी नहीं का जिक्र क्यों नहीं किया? गंगा का उद्गम छोटा सा है, लेकिन वह विशाल है। गंगा नदी में सामर्थ्य है सबको अपने में समाने का। वो सबको अपने में समाते चली जाती है। जो व्यक्ति दूसरों को गले लगाता है वह पवित्रतम हो जाता है। गंगा में समाकर नाले का पानी भी पवित्र हो जाता है। परमात्मा किसी से मिलने नहीं गए, लेकिन जो उनसे मिलने आया उसे शुद्ध कर दिया, वह उनका होकर रह गया।
पक्खीसु वा गरुले वेणुदेवे : पंछियों में गरुड़ सबसे शक्तिशाली है, इसे उड़ने के लिए पंख फड़फड़ाने की आवश्यकता नहीं होती है, वह अपने डैने फैलाकर मजे से आकाश में उड़ता रहता है। निर्वाण के आकाश ने उड़ने के लिए लोगों को परिश्रम करना पड़ता है, लेकिन महावीर बिना परिश्रम के गरुड़ की भांति उड़ते रहते हैं। महावीर बिना थके एक लय में बोलते हैं, तभी तो निर्वाण कल्याणक की बेला में 48 घंटों तक उनके प्रवचन चले थे। इसलिए सुधर्मा स्वामी ने महावीर की तुलना गरुड़ से की। वीरों का वीर होता है विश्वसेन, जो विश्व से मित्रता कर लेता है। हमारे लिए योद्धा मतलब दुश्मनसे लड़ने वाला, लेकिन सुधर्मा स्वामी ने महावीर को विश्वसेन कहा है। उनकी किसी के साथ दुश्मनी नहीं है, मैत्री का भाव है। वे लड़ रहे हैं, लेकिन नफरत नहीं है। जैसे फूलों में कमल का फूल श्रेष्ठ है, वैसे ही महावीर भी श्रेष्ठ हैं।
उपाध्याय प्रवर ने कहा कि महावीर की प्रशंसा करते हुए सुधर्मा स्वामी ने किसी की कमी नहीं निकाली। उन्होंने दूसरों की प्रशंसा करते हुए महावीर की प्रशंसा की है। लेकिन उन्हें लगा कि मैंने परमात्मा को पूरा नहीं पहुँचाया है। इसके बाद वे आध्यात्म में आते हैं, और कहते हैं कि दुनिया में कई पुण्य हैं, कई प्रकार के दान हैं, लेकिन अभयदान को सर्वश्रेष्ठ दान माना गया है। दान में अभयदान, सत्य में वह सत्य जो कभी किसी के जीवन में अँधियारा न लाये, और तप में ब्रह्मचर्य जैसे श्रेष्ठा हैं, वैसे ही महावीर सर्वश्रेष्ठ हैं।