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मौसम के बदलाव को लेकर पूर्वजों ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण से डाली होली की परम्परा : प्रो. बी आर सिंह

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मौसम के बदलाव को लेकर पूर्वजों ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण से डाली होली की परम्परा : प्रो. बी आर सिंह


— संगीत और रंगों से दूर होता है आलस्य एवं थकान

लखनऊ, 12 मार्च (हि.स.)। होली का त्योहार हमारे पूर्वजों ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मनाने का समय तय किया था। यह त्योहार मौसम के बदलाव के समय आता है, जब शरीर में आलस्य और थकान बढ़ जाती है। गर्मी के मौसम की शुरुआत में ठंडे मौसम से बदलाव के कारण शरीर में सुस्ती महसूस होती है, जिसे संगीत और रंगों द्वारा दूर किया जाता है। फाग के इस मौसम में तेज संगीत और रंग शरीर को ऊर्जा प्रदान करते हैं। यह बातें बुधवार को महानिदेशक, स्कूल ऑफ मैनेजमेंट साइंसेस के महानिदेशक व अध्यक्ष वैदिक विज्ञान केन्द्र लखनऊ के अध्यक्ष प्रो. भरत राज सिंह ने कही।

उन्होंने बताया कि गुलाल और अबीर त्वचा को उत्तेजित करते हैं, जिससे त्वचा के छिद्रों में समाकर स्वास्थ्य को बेहतर बनाते हैं। होलिका दहन से निकलने वाली गर्मी बैक्टीरिया को नष्ट कर स्वच्छता प्रदान करती है। इसके अलावा, होली के समय घरों की सफाई से भी सकारात्मक ऊर्जा मिलती है। होलिका की परिक्रमा करने से शरीर पर जमे कीटाणु भी अलाव की गर्मी से मर जाते हैं। होलिका दहन से मौसमी बदलाव के दौरान हुए कफ दोष से मुक्ति मिलती है। होलिका दहन से शरीर में नई ऊर्जा आती है। होलिका दहन से सूखी और गंदी सभी चीजें जलाकर वसंत में नए जीवन का मार्ग प्रशस्त होता है। हल्दी जैसे प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल करने से शरीर शुद्ध होता है और त्वचा पर अवांछित जमाव हटता है। होली के गीत, ढोल, मंजीरा वगैरह बजाने से आलस्य भगाने में मदद मिलती है। होली के गीत हफ़्तों तक गाए जाते हैं और ऐसे में शारीरिक गतिविधि भी होती है।

--सावधानियां भी जरुरी

प्रो. बीआर सिंह ने बताया कि इस दौरान सावधानियां भी बहुत जरुरी है, जैसे बाजारु रंगों के केमिकल से शरीर पर बीमारियां हो सकती हैं, इसलिए प्राकृतिक रंगों का प्रयोग करें।

रंग खेलने से पहले और बाद में उबटन करना जरूरी है, ताकि रंग आसानी से निकल जाए और त्वचा पर कोई असर न हो। पेंट और अन्य रसायनों से दूर रहें, क्योंकि ये त्वचा को नुकसान पहुंचा सकते हैं।

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हिन्दुस्थान समाचार / अजय सिंह