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ओशो ने अपने सन्यासियों को सिखाई जीवन जीने की कला

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ओशो ने अपने सन्यासियों को सिखाई जीवन जीने की कला


फर्रुखाबाद 11 दिसंबर (हि.स.)। ओशो रजनीश ने अपने शिष्यों को जीवन जीने की कला सिखाई है। ओशो का कहना है कि विराग से हटकर वीतराग में जीना ही सन्यास है। वह बात ओशो रजनीश के स्वामी सन्यासी आनंद पुनीत ने ओशो रजनीश के जन्मदिन पर आयोजित महोत्सव में कहीं।

उन्होंने कहा कि जीवन की तीन स्थितियां होती हैं। राग, विराग और वीतराग। रागी अगर इस बात पर अभिमान करता है कि उसके पास अकूत संपत्ति है तो बैरागी को उस संपत्ति के त्याग देने का अभिमान हो जाता है। दोनों स्थितियां एक समान ही है। रागी को संपत्ति होने पर अभिमान है और बैरागी को संपत्ति में ठोकर मार देने का अभिमान है। इन दोनों स्थितियों में आनंद की धारा बहने के लिए वीतराग की स्थिति उत्पन्न करनी होगी। न राग है न विराग है, जो है उसमें वीतरागी जीता है। इसे ऐसे समझ लेना जरूरी है जिस तरह से वीणा में संगीत पैदा करने के लिए तारों को एक विशेष स्थिति में छोड़ना पड़ता है।

स्वामी जी ने कहा कि वीणा के तारों को अधिक कस दिया जाए तो वह टूट जाते हैं और यदि ढीला छोड़ दिया जाए तो उनमें संगीत पैदा नहीं होता है।संगीत पैदा करने के लिए तारों को बीच की स्थिति में लाना जरूरी है, तभी उनमें संगीत पैदा होता है। इसी तरह से मनुष्य जीवन में संगीत पैदा करने के लिए न तो ज्यादा हठ योग की जरूरत है और ना ही बिल्कुल परमात्मा को भूल जाने की जरूरत है। जो बीच की स्थित है उसमें जीना है और उस जीने में संगीत पैदा होता है। उसी से संगीत का आनंद अभूतपूर्व होता है। इसीलिए तो दयाबाई ने कहा है बिन दामिन उजियारी जहां बिन घन परति फुहार, मगन हुआ मनुआ तहां दया निहार निहार।

उसी का नाम जीवन जीने की कला है, जिसे ओशो रजनीश ने सिखाई है। इस अवसर पर स्वामी अनिल, स्वामी ध्यान अग्नि और स्वामी चैतन्य निकेतन ने भी अपने विचार व्यक्त किये। सुबह से ध्यान कीर्तन चलते रहे।

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हिन्दुस्थान समाचार / Chandrapal Singh Sengar