समय के साथ नहीं बदलते, वह ऑउटडेटेड हो जाते हैं: प्रवीण ऋषि

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रायपुर : उपाध्याय प्रवर ने धर्मसभा में आगंतुकों को संबोधित करते हुए पूछा कि क्यों कोई व्यक्ति अपने सौभाग्य को दुर्भाग्य में क्यों बदल देता है? उसकी सोच में कैसी भ्रमिति होती है? उनके अनुसार, परमात्मा उसे पापी मानते हैं। वह सौभाग्यशाली था, लेकिन अपनी दुर्बुद्धि और कर्मों के कारण, उसने अपने सौभाग्य को दुर्भाग्य में बदल दिया। क्या यह जीवनशैली के कारण होता है, जिसके कारण व्यक्ति अपने सौभाग्य को दुर्भाग्य में बदल देता है, इस पर सुधर्म स्वामी ने श्रुतदेव की आराधना के 18वें अध्याय में बात की। इस उत्तर की जानकारी को रायपुर श्रमण संघ के अध्यक्ष ललित पटवा ने प्रस्तुत किया। बुधवार को उत्तराध्ययन श्रुतदेव आराधना के दसवें दिवस लाभार्थित परिवार जवरीलाल बरमेचा परिवार चेन्नई ने श्रावकों का तिलक लगाकर धर्मसभा में स्वागत किया। धर्मसभ को संबोधित करते हुए प्रवीण ऋषि ने कहा कि जीवन न तो जहर है, और न ही अमृत। हम जो बोलते हैं, वह तय करता है कि हमारा जीवन अमृत बनेगा या जहर। इस अध्याय की पहली गाथा में प्रभु कहते हैं कि हमें जो मिला है उसकी कीमत अगर हमें पता चल गई तो जीवन अमृत है, और अगर हम उसकी कीमत नहीं जान पाते हैं तो जहर है। मैं श्रेष्ठ हूँ, सब जानता हूँ, मुझे और कुछ सीखने की आवश्यकता नहीं है सोचने वाला साधू भी पापी होता है। जो नया ज्ञान लेने से इंकार करता है, वह पाप करता है। जो नई बात नहीं सीखता है, ज्ञान अर्जन नहीं करता है, वह पापा करता है। अगर अपडेट नहीं होगे तो ऑउटडेटेड हो जाओगे। ऐसे लोगों के मन में जिसने उपकार किए हैं उनके प्रति कृतज्ञता नहीं रहती है। वे कुशल नहीं होते हैं, लेकिन खुद को मास्टर समझते हैं। मर्यादा का उललंघन करने में उन्हें ख़ुशी मिलती है। गड़े मुर्दे उखाड़ना इनका काम होता है। ऐसे लोगों को प्रभु पापी कहते हैं। अपनों की परवाह नहीं करना, यह सब सौभाग्य को दुर्भाग्य में बदलने के सूत्र हैं। और जो भी इन बातों से बच जाते हैं, वे अपने जीवन को अमृत बनाते हैं। उपाध्याय प्रवर ने कहा कि अगले अध्याय में जो दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदल देते हैं, ऐसे व्यक्तियों का गुणगान है। इस अध्याय में दुर्भाग्य के पलों को सौभाग्य की यात्रा करने वाले एक राजा का वर्णन है। राजा संजय को शिकार का शौक था। एक बार जंगल में उसने एक हिरन को तीर मारा, तीर लगने के बाद हिरन भागा, और भागते-भागते एक मुनि के सामने अपना दम तोड़ दिया। हिरन का पीछा करते हुए राजा जब वहां पहुंचा तो उसे लगा कि मैंने एक मुनि के हिरन की हत्या की है, और वह डर गया। उपाध्याय प्रवर ने कहा कि अगर किसी को अपनी गलती का बोध हो जाए, तो वहीं से उसका उत्थान शुरू हो जाता है। वह मुनि से माफ़ी मांगने लगा, याचना करने लगा। लेकिन मुनि तो साधना में लीन थे, उन्हें कुछ पता नहीं था। राजा संजय ने सोचा कि मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई है, और मुनि बहुत क्रोधित हैं। राजा अभयदान मांगने लगा, गिड़गड़ाने लगा। मुनि ने अपनी आखें खोली और कहा कि राजन तुम्हे अभयदान हैं, लेकिन तू भी अभय का दाता बन। क्यों शिकार करता है? एक दिन सब कुछ छोड़कर जाना है, क्यों इसे जकड़कर रखा है। जब तक जीवित रहोगे लोग साथ देंगे, मरने के बाद कोई साथ नहीं देता। धन साथ नहीं चलता है, लेकिन पाप साथ रहता है। मुनि की बातें सुनकर राजा संजय जाग गया, उसके मन में मोक्षगमन की कामना जागी, दीक्षा ली और जय मुनि बन गया। महल के बिना भी सुख मिल सकता है, उसे इस बात का अहसास हुआ। उसने साधना सीखी, खुश रहना सीखा। घूमते घूमते उसे एक दूसरा मुनि मिला। उसने कहा कि तू जैसा खुश दिखा रहा है, वैसा ही खुश है, यह साधना कहां सीखी? जय मुनि ने अपनी पूरी कहानी सुना दी। क्षत्रिय मुनि ने कहा कि मैं तुम्हे जनता हूं, पीछे जन्म में तुम कौन थे, वह भी जनता हूं। तुम्हारा आयुष कब और कैसे पूरा होगा,यह भी जनता हूं। जय मुनि ने पूछा कि आप कैसे जानते हैं? कहां से सीखा? जिसकी जिज्ञासा जीवित है वह ज्ञानी है। क्षत्रिय मुनि ने कहा कि जो भी कार्य करना हो तो मन लगाकर करो, जो कार्य नहीं करना है, उसके बारे में सोचो भी मत। आँख हमेशा खुली रखना और सदैव दिमाग का उपयोग करना। बिना रुके चलना, और जबतक मंजिल न मिले,मत रुकना। यह मत पूछना कि मंजिल कब आएगी? मंजिल अपनी जगह पर है, तुम्हें उसके पास जाना है। क्षत्रिय मुनि ने गहरी गाथा बताई, सहस्यों से भरी। 10 चक्रवर्तियों की गाथा, जो मोक्ष में पहुंचे, और उनके स्मरण उनके पुण्य से जोड़ता है। और क्षत्रिय मुनि ने जय मुनि को चक्रवर्तियों की साधना से जोड़ दिया।