खरपतवार -आजीविका के लिए खतरा
कुलभूषण उपमन्यु
भारत आज भी मुख्यत: कृषि प्रधान देश है। देश की 48 फीसदी आबादी कृषि पर प्रत्यक्ष रूप से निर्भर है। देश की अर्थव्यवस्था में भी कृषि क्षेत्र की भागीदारी 16.61 प्रतिशत है। हालांकि कृषि जनित कच्चे माल पर कई प्रकार के उद्योग भी निर्भर हैं। खासकर कपड़ा उद्योग, खांड उद्योग, पटसन उद्योग, सारा खाद्य प्रसंस्करण उद्योग आदि। कहा जा सकता है कि औद्योगिक उत्पादन का भी एक भाग कृषि पर निर्भर करता है। कृषि भारत में पशुपालन से जुडी है। हर किसान पशुपालन से अतिरिक्त आय के अलावा गोबर की खाद की व्यवस्था करना चाहता है। परंपरा से पशुपालन खेती की जमीन के अलावा वन या चरागाह की जमीन पर निर्भर रहा है। किन्तु पिछले कुछ दशकों से जब से हरित क्रांति के माध्यम से विदेशी बीजों के साथ विदेशी आक्रामक खरपतवार देश में आए हैं, तब से उनका वन और चरागाह की भूमि पर फैलाव भयानक रूप ले चुका है।
लैंटाना, यूपिटोरियम, पार्थेनियम गत दिनों डाउन टू अर्थ ने नेचर ससटेनेबिलिटी रिसर्च संस्थान की एक रपट प्रकाशित की है, जिसमें बहुत दिनों से चिंता का कारण बनी खरपतवार की समस्या पर वैज्ञानिक शोध की मुहर लगा दी है। इसके मुताबिक हर वर्ष भारत में 15,500 वर्ग किलोमीटर गैर कृषि क्षेत्र आक्रामक खरपतवारों की चपेट में आ रहा है, जिससे 14.40 करोड़ आबादी सीधे तौर पर प्रभावित हो रही है। इसके साथ कृषि भूमि और वन्यप्राणी आवास भी प्रभावित हो रहे हैं। 27.9 करोड़ पशु, और 2 लाख वर्ग किलोमीटर कृषि भूमि के छोटे किसान प्रभावित हो रहे हैं। हिमालय क्षेत्र, पूर्वोत्तर और पश्चिमी घाट के क्षेत्र सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं। 2022 तक खरपतवारों के आक्रमण से 266,954 वर्ग किलोमीटर पशु चारा क्षेत्र और 212,450 वर्ग किलोमीटर शाकाहारी वन्यप्राणी आवास और 105,725 वर्ग किलोमीटर टाइगर आवास खरपतवारों के कारण अनुउत्पादक हो चुके हैं।
भारत का 2/3 प्राकृतिक क्षेत्र खरपतवारों की चपेट में आ चुका है, जिससे घुमंतू पशुपालक, घरेलू चरागाह आधारित पशुपालक और वन्यप्राणियों के लिए जरूरी घास चारा प्रजातियां नष्ट हो गई हैं। इन संसाधनों पर निर्भर समुदाय आजीविका के संकट में आ गए हैं और कई बार विस्थापन के लिए मजबूर हो रहे हैं। एक आकलन के अनुसार 1960 से 2020 तक 8 लाख,30 हजार करोड़ की हानि अर्थव्यवस्था को पंहुची है। जैव विविधता का जो विनाश खरपतवारों के कारण हुआ है, उसके कई प्रत्यक्ष नुकसान के अलावा अप्रत्यक्ष भी की हानि हुई है। वन्यप्राणी और मानव संघर्ष के बढ़ने से जनधन की हानि हो रही है। खासकर किसान ही इसका डंक झेल रहे हैं। हाथी, बंदर, सूअर,नीलगाय, और मांसाहारी शेर-चीता आदि भी वनों में भोजन न मिलने के कारण गांव या खेतों की ओर मुंह कर रहे हैं। एक ओर वन क्षेत्र घट रहा है, दूसरी ओर बचा हुआ अनुत्पादक होता जा रहा है।
हिमालय क्षेत्र पहले ही आजीविका कमाने की दृष्टि से संघर्ष पूर्ण क्षेत्र है, वहां स्थिति ज्यादा खराब है। यहां खेती और पशुपालन पर निर्भरता भी 90 प्रतिशत के आसपास है। वन्यप्राणी-मानव संघर्ष के चलते बहुत से क्षेत्रों में किसान अपनी जमीन खाली छोड़ने पर विवश हो चुके हैं। इसके अलावा ईंधन आपूर्ति और स्थानीय उपयोग के लिए विविध दस्तकारी के लिए कच्चा माल देने वाले उत्पाद और दवा-दूरी के लिए जड़ी-बूटी के न मिलने के कारण आजीविका के लिए स्थितियां कठिन तर होती जा रही हैं। हैरानी का विषय है कि आज तक इस समस्या को चिह्नत ही नहीं किया गया है। इसीलिए इसके समाधान के लिए कोई संस्थागत व्यवस्था भी नहीं बन पाई है। यह अब प्रशासन और विज्ञान जगत के लिए एक चुनौती है कि वे किस कुशलता से इस गंभीर समस्या का संज्ञान लेते हैं और इसके निराकरण के लिए मिशन मोड में प्रयास शुरू करते हैं।
किसी प्राकृतिक संसाधन का इस तरह विनष्ट हो जाना राष्ट्रीय हानि है, जिसकी भरपाई समय पर न संभले तो करना कठिन हो जाएगी। हम हिमाचल प्रदेश में मनरेगा जैसे प्रावधानों को इस कार्य में प्रयोग करने का आग्रह सरकार से करते रहे हैं। आशा है इस दिशा में ध्यान दिया जाएगा और केंद्र सरकार को इस कार्य पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है क्योंकि राज्य सरकारों के पास खास कर हिमाचल प्रदेश-उत्तराखंड जैसे राज्य जो अपना खर्च कर्ज लेकर चलाने को मजबूर हैं उनके लिए एक नया बोझ संभालना आसान नहीं है। किन्तु केंद्र सरकार तो मनरेगा में भी बजट कम करती जा रही है। केंद्र सरकार यदि राज्यों को इस काम के लिए विशेष कार्य-संबद्ध सहायता दे तो कार्य की शुरुआत हो सकती है, वरना लगातार वन-चारागाह क्षेत्र अनुत्पादक होते रहेंगे और देश और किसानों की आर्थिकी पर दुष्प्रभाव बढ़ता जाएगा।
(लेखक, प्रसिद्ध पर्यावरण कार्यकर्ता और हिमालय नीति अभियान के अध्यक्ष हैं।)
---------------
हिन्दुस्थान समाचार / मुकुंद

