युद्धकालीन पत्रकारिता: उत्तरदायित्व, विवेक और राष्ट्रहित का संतुलन

डॉ. विश्वास चौहान
पत्रकारिता या मीडिया को लोकतंत्र का चौथा आधार स्तम्भ कहा जाता है । वो है भी , लेकिन जब कोई घटना किसी देश के लोकतंत्र पर ही हमला हो और उसके कारण युद्ध हो तो पत्रकारिता के मायने क्या होने चाहिए ? यह प्रश्न आज पत्रकारिता जगत में विचारणीय प्रश्न है । विदित हो कि डिजिटल मीडिया संस्थान द वायर के प्रसारण पर रोक लगा दी गई है। इसके साथ ही मकतूब मीडिया के एक्स अकाउंट को भी प्रतिबंधित किया है। इस कार्रवाई को द वायर ने प्रेस की स्वतंत्रता की संवैधानिक गारंटी का स्पष्ट उल्लंघन कहा है ।
भारत सरकार ने भारत में द वायर पर जो प्रतिबंध लगाया गया है, वह मुख्यतः सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 (Information Technology Act, 2000) की धारा 69A (Section 69A) के तहत किया गया है। इस धारा में यदि कोई पत्रकारिता ऐसी है जो भारत की संप्रभुता और अखंडता के खिलाफ हो, या रक्षा, सुरक्षा या विदेशी संबंधों को नुकसान पहुंचाती हो, या सार्वजनिक व्यवस्था को बाधित करती हो,या अपराध को उकसाने वाली हो तो उसको आपातकालीन परिस्तिथियो में इस अधिनियम के नियम 9(1) के तहत बिना कारण पूछे भी प्रतिबंधित किया जा सकता है ।
जब वर्तमान की परिस्थितियों में हम इस सम्बंध में विचार करते हैं तो ध्यान में आता है कि युद्ध केवल रणभूमि तक सीमित नहीं होता, यह एक मानसिक, राजनीतिक, कूटनीतिक और संचार का युद्ध भी होता है। इस संचार युद्ध में किसी भी देश की पत्रकारिता की भी भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। युद्धकालीन पत्रकारिता न केवल जनमानस को सूचना देती है, बल्कि यह उनके दृष्टिकोण, मनोबल और देशभक्ति की भावना को भी प्रभावित करती है। ऐसे समय में पत्रकारिता का उत्तरदायित्व कहीं अधिक बढ़ जाता है क्योंकि एक छोटी सी चूक भी राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डाल सकती है। युद्धकाल में पत्रकारिता की संवेदनशीलता यह होती है कि युद्ध के दौरान मीडिया का हर शब्द, हर तस्वीर और हर विश्लेषण राष्ट्रीय हित और जनमानस पर प्रभाव डाल सकता है। अतः पत्रकारों को बेहद संवेदनशील, सतर्क और जिम्मेदार होना चाहिए।
सेना की गोपनीयता: सैनिकों की तैनाती, रणनीति, हथियारों की स्थिति या मिशन से जुड़ी कोई भी सूचना यदि लीक होती है तो इससे शत्रु को बढ़त मिल सकती है। फर्जी खबरों, अफवाहों या अतिरंजित सूचनाओं से न केवल नागरिक भयभीत हो सकते हैं, बल्कि सैन्य कार्रवाइयों में बाधा भी उत्पन्न हो सकती है। सैन्य और नागरिक सुरक्षा दुष्प्रभावित होती है । पत्रकारिता का उत्तरदायित्व होना चाहिए राष्ट्रहित सर्वोपरि , स्वतंत्रता के अधिकार के साथ पत्रकारिता को यह भी समझना चाहिए कि युद्ध जैसे असाधारण समय में राष्ट्रहित सर्वोच्च होता है। इस दौरान रिपोर्टिंग को जिम्मेदारी, संयम और विवेक के साथ करना चाहिए।
पत्रकारों को किसी भी रूप में दुश्मन की मदद नहीं करनी चाहिए, चाहे वह अनजाने में ही क्यों न हो। यही राष्त्रतात्विक दृश्टिकोण होता है । सेना और सरकार द्वारा जारी किए गए दिशा-निर्देशों का पालन करना आवश्यक होता है ताकि कोई गोपनीय सूचना उजागर न हो। ऐसा समन्वय प्रशासन और सेना के साथ होना चाहिए। पत्रकारिता का दायित्व देश की जनता के मनोबल और सामाजिक एकता के पोषण का भी होता है। क्योंकि युद्ध के समय समाज में भय, भ्रम और असुरक्षा की भावना बढ़ सकती है। मीडिया को ऐसे समय में समाज का मनोबल बनाए रखने में योगदान देना चाहिए।
पत्रकारिता में लगातार मौतों, हार या भय की खबरों से समाज में हताशा फैल सकती है। पत्रकारों को यथार्थ दिखाते हुए आशा का दृष्टिकोण बनाए रखना चाहिए। विविधताओं वाले देशों में मीडिया का यह कर्तव्य होता है कि वह सामाजिक एकता को बढ़ावा दे और धर्म, जाति या भाषा के आधार पर भेदभाव न फैलाए बल्कि राष्ट्रीय एकता का संदेश दे। आज के युद्ध में दुष्प्रचार और साइबर प्रोपेगैंडा भी एक हथियार है जिसका मुकाबला केवल गोलियों और बमों का नहीं, बल्कि सूचना और साइबर हमलों का भी है। दुश्मन देश सोशल मीडिया और न्यूज प्लेटफॉर्म्स के जरिए अफवाहें फैलाकर जनता को भ्रमित करने की कोशिश करता है।
मीडिया को चाहिए कि वह फेक न्यूज की पहचान और खंडन करते हुए तथ्य-जांच (fact-checking) की मजबूत प्रक्रिया अपनाए और दुष्प्रचार का मुकाबला करे। साथ ही जिम्मेदार मीडिया हाउस को सोशल मीडिया पर फैलने वाली अफवाहों का खंडन करते हुए सही जानकारी प्रसारित करनी चाहिए। युद्धकालीन पत्रकारिता का उद्देश्य केवल रिपोर्टिंग करना नहीं होता, बल्कि समाज में शांति, मानवता और संवाद की भावना को भी प्रोत्साहित करना होता है। युद्ध की विभीषिका दिखाकर सैनिकों के बलिदान, युद्ध में घायल बच्चों, विस्थापित परिवारों की कहानी को सामने लाकर युद्ध की पीड़ा को समझाया जा सकता है। पत्रकारिता को चाहिए कि वह केवल सैन्य दृष्टिकोण पर केंद्रित न रहकर राजनीतिक और कूटनीतिक प्रयासों को भी स्थान दे।
वास्तव में युद्धकालीन पत्रकारिता और शांतिकालीन पत्रकारिता में अंतर होता है। युद्धकालीन पत्रकारिता प्राथमिक उद्देश्य राष्ट्रीय सुरक्षा, मनोबल, गोपनीयता की रक्षा होता है। वहीं, शांति कालीन पत्रकारिता का उद्देश्य लोकतांत्रिक मूल्य, पारदर्शिता, विविध मुद्दों की चर्चा होता है। युद्धकालीन पत्रकारिता में सेंसरशिप अपेक्षाकृत अधिक; होती है राष्ट्र हित मे सेना व सरकार के दिशानिर्देश लागू होते हैं जबकि शांति कालीन पत्रकारिता में न्यूनतम, स्वतंत्रता पर जोर।
राष्ट्रहित मे चयनात्मक, रणनीतिक, सकारात्मक दृष्टिकोण वाला होना चाहिए, वही शांतिकालीन पत्रकारिता में व्यापक,आलोचनात्म खुली बहस आधारित भी हो तो लोकतंत्र के लिए अच्छा है। राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में संयमित, राष्ट्रवादी दृष्टिकोण के साथ होना चाहिए लेकिन शांति कालीन पत्रकारिता में स्वतंत्र, निगरानीकर्ता के रूप में भी रहना चाहिए । युद्धकालीन पत्रकारिता में सूचना की प्रकृति सीमित, सत्यापन के बाद प्रकाशित वाली होना चाहिये वहीं शांति कालीन पत्रकारिता में अधिक विस्तृत, विविध स्रोतों से जानकारी लेकर होना चाहिए।इस तुलना से स्पष्ट होता है कि पत्रकारिता के दोनों रूपों में सन्दर्भ, उत्तरदायित्व और प्राथमिकताएँ अलग-अलग होती हैं।
युद्धकालीन पत्रकारिता की अंतरराष्ट्रीय पत्रकारिता और वैश्विक धारणा भी यही है कि आज की वैश्विक दुनिया में किसी देश की युद्धकालीन छवि उसकी मीडिया के जरिए ही बनती है। अंतरराष्ट्रीय मीडिया भी युद्ध को कवर करती है, और भारत की पत्रकारिता को यह ध्यान में रखना चाहिए कि उसका व्यवहार और रिपोर्टिंग वैश्विक मंच पर देश की प्रतिष्ठा को प्रभावित कर सकती है। वहां निष्पक्षता की दृष्टि से नही राष्ट्रनिष्ठा की दृष्टि से आकलन होता है। यद्यपि राष्ट्रहित महत्वपूर्ण है, परंतु पूरी तरह प्रचारात्मक रवैया भी पत्रकारिता की निष्पक्षता को आहत कर सकता है। इसलिए प्रचार बनाम पत्रकारिता के बीच संतुलन भी जरूरी है।
युद्धकाल मे राष्ट्र की पत्रकारिता की वैश्विक समर्थन की रणनीति होना चाहिए । युद्धकालीन पत्रकारिता को अंतरराष्ट्रीय समुदाय को भारत के दृष्टिकोण से अवगत कराना चाहिए ताकि वैश्विक समर्थन प्राप्त किया जा सके। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से देखें तो भारत की युद्धकालीन पत्रकारिता में सेंसरशिप नई बात नही है । भारत ने 1947-48, 1962, 1965, 1971, 1999 (कारगिल) जैसे युद्धों का सामना किया है। तब के समय की भारतीय मीडिया की भूमिका पर नजर डालना भी आवश्यक है। 1962 में चीन से युद्ध के समय मीडिया पर सेंसरशिप लागू थी, लेकिन कई बार जनता को वास्तविक स्थिति पता न चलने से भ्रम फैला। 1971 का भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय मीडिया ने राष्ट्रवादी भावना को प्रोत्साहन दिया और जनसमर्थन में वृद्धि की। 1999 का कारगिल युद्ध के समय भारत में टेलीविजन पत्रकारिता के युद्ध-रिपोर्टिंग की शुरुआत थी। उस समय बरखा दत्त, प्रणय रॉय जैसे पत्रकारों ने युद्ध-क्षेत्र से रिपोर्टिं कर भारत की सामरिक गोपनीयता को भंग कर दिया था जिसकी सर्वत्र आलोचना हुई थी ।
वस्तुत: वर्तमान के सूचना युग मे युद्धकालीन पत्रकारिता के लिए भारत सरकार को व्यापक दिशा-निर्देश और नीति-निर्माण करने की आवश्यकता हैं राष्ट्रीय सुरक्षा तथा हित में मीडिया की सीमाएँ, उत्तरदायित्व और दायरे तय किए जाएँ। मीडिया संस्थानों को पत्रकारों का विशेष प्रशिक्षण करते हुए युद्ध-कवरेज के लिए पत्रकारों को विशेष सुरक्षा, संवेदनशीलता और रक्षा नीति की जानकारी दी जानी चाहिए। मीडिया संगठनों को चाहिए कि अपने रिपोर्टरों के लिए एक एथिकल कोड ऑफ कंडक्ट अर्थात आचार-संहिता निर्धारित करनी चाहिए।
कुल निष्कर्षतः कह सकते हैं कि युद्धकालीन पत्रकारिता मात्र सूचना का आदान-प्रदान नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा, जन-विश्वास, और वैश्विक कूटनीति का एक संवेदनशील स्तंभ है। ऐसी पत्रकारिता को न केवल सत्यनिष्ठ होना चाहिए, बल्कि उसका उद्देश्य समाज को जोड़ना, शांति का संदेश देना और राष्ट्र की गरिमा की रक्षा करना भी होना चाहिए। लोकतंत्र में प्रेस की स्वतंत्रता महत्वपूर्ण है, परंतु यह स्वतंत्रता युद्ध के समय राष्ट्रहित के विवेक से संतुलित होनी चाहिए।
(लेखक, विधि प्रोफेसर हैं।)
हिन्दुस्थान समाचार / डॉ. मयंक चतुर्वेदी