विलुप्त हुई सावन में झूला झूलने की परंपरा
डॉ. रमेश ठाकुर
आधुनिक युग ने बहुत कुछ बदल दिया। देशी किस्म की अनगिनत परम्पराएं व रीति-रिवाज विलुप्त कर दिए हैं। इस कड़ी में सावन माह में झूला झूलना भी शामिल है। एक जमाना था, जब झूलों का ग्रामीण औरतें बेसब्री से इंतजार करती थीं कि कब सावन माह का आगमन हो और वो पेड़ों पर रस्से बांधकर झूला झूलें। पर, अफसोस सावन तो हर साल आता है लेकिन झूले नहीं। आज से नहीं, बल्कि सदियों से सावन महीने का झूलों से गहरा नाता रहा है। सनातनी परंपरा के लिहाज से सावन को झूला झूलने वाला माह कहा गया है। हालांकि, झूला झूलना सिर्फ सनातन परंपरा तक ही सीमित नहीं, बल्कि प्रत्येक धर्म के लोग इस पर्व में सहस्र शामिल होते रहे हैं। समय बदला, तीज-त्यौहार और रिवायतें भी बदल गईं। साथ ही झूलों की परंपराएं भी। अब कहीं भी सावन के झूले नहीं दिखाई पड़ते। गांवों में दिख जाएं, तो बड़ी बात है। पर, याद सभी करते हैं कि सावन तो आता है लेकिन अपने साथ झूले नहीं लाता। ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे झूले कहीं बीच में छूट गए हैं।
इस परंपरा के विलुप्त होने के कुछ वास्तविक कारण भी हैं। घरों में आंगनों का खत्म होना, बाग-बगीचे, तालाब-पोखर नष्ट हो गए हैं। पैड़-पौधों को लगाने में लोग कंजूसी दिखाते हैं। तेजी से बढ़ती आबादी के चलते आवासीय जगह सिमट गईं। बात ज्यादा पुरानी नहीं है, एकाध दशक पूर्व से झूले की परंपराएं धराशायी हुई हैं। सन् 1999 के बाद जैसे ही 2000 में जमाने ने प्रवेश किया, झूले शून्यता की ओर बढ़े। दरअसल, ये ऐसा वक्त था, जहां से जमाने ने खुद को मॉर्डर्न होना आरंभ किया। तभी से पुरानी परंपराओं ने तेजी से तौबा कहना शुरू किया। फ्लैट संस्कृति का बढ़ना, कच्चे घरों की जगह पक्के मकानों का निर्माण, आमजनों की पहुंच तक फोन-मोबाइल की रीच, नई पीढ़ी का पुरानी रिवायतों से मुंह मोड़ना, जैसे कई कारण हैं। स्थिति आज ये है, झूलों का रिवाज अब इतिहास बन गया है नई पीढ़ी के लिए।
मौजूदा समय की आधुनिक चकाचौंध में बुजुर्ग गुजरे जमाने को याद करके अपने मन को मसोसते हैं। बदलते वक्त को वह रोक भी नहीं सकते। उन्हें याद आते हैं उनके देखे हुए पुराने दिन, सावन में भीनी-भीनी बारिश का होना और कजरी-गाने गाकर झूला झूलती महिलाएं, हिंदी फिल्मों के बजते गाने, किसी का भी मन मोह लेते थे। ऐसा लगता है कि मानो जैसे आधुनिक मोह-माया ने हम सभी को पिंजरों में कैद कर लिया हो। हालांकि शहरों के मुबाकले ग्रामीण अंचलों में सावन माह का महत्व अब भी थोड़ा बहुत बचा है। पर ज्यादा नहीं, धीरे-धीरे गांवों में भी महानगरों जैसे हालात होते जा रहे हैं। सावन को वेद-पुराणों में पवित्र तो कहा ही गया है साथ ही दो और खास बातें जुड़ी हैं। अव्वल, बारिश और दूसरा झूला। बारिश के दीदार तो होते रहते हैं। पर, झूले कहीं दूर-दूर तक दिखाई नहीं देते। अन्य वस्तुओं की भांति झूलों का जमाना रिमिक्स होकर लौटेगा, ऐसा भी नहीं लगता।
गांव की सखियों का झुंड झूलों के बहाने बाग-बगीचों में मिलता था। सखी शादी होकर ससुराल भी चली जाती थी, तब झूले मिलाप का जरिया बनते थे। यही कारण था महिलाएं सावन के आने का बेसब्री से इंतजार करती थीं। बदलते युग के साथ उन्होंने इंतजार करना भी छोड़ दिया। झूले के लिए राजस्थान, पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड व राजस्थान जैसे राज्य विख्यात थे। उनके लिए बिना झूलों के सावन अधूरा होता था। युवा लड़कियां के अलावा घरों की बूढ़ी औरतें भी सावन की फुहारों में सराबोर होती थीं। एक-डेढ़ दशक पहले जन्में युवाओं को तो नहीं पता होगा। पर, बीस-बाईस वर्ष का नौजवान जरूर झूले का इतिहास याद करता होगा कि सावन के महीने में गांव की युवतियां पेड़ों पर कैसे झूला झूलती थीं।
एक मनमोहक नजारा होता था, जब झूला झूलते औरतें आपस में गीत गातीं थीं। हंसी-मजाक, ठिठोलियां करती थीं। उन लम्हों से आज के युवा तकरीबन अनभिज्ञ हैं। वो झूला और सावन पर्व के संबंध को बिल्कुल नहीं जानते। कम उम्र की लड़कियां और ब्याह शादी वाली औरतें स्थानीय लोकगीत व कजरी गाती थीं जिन्हें सुनने के लिए पुरुषों का आसपास जमावड़ा लगता था। बुजुर्ग औरतों की कजरी गवाई सुनने लायक होती थी। क्योंकि कजरी देहाती व खाटी देशी किस्म की वह विधा है जिसमें सावन, भादों के प्यार-स्नेह, वियोग, व मधुरता का मिश्रण होता था। धीमी-धीमी बारिश में कजरी गाने का मजा कुछ और ही होता था। सावन का सौंदर्य और परंपरागत कजरी की सुगंधित मिठास वर्षा बहार का जो वर्णन लोक गायन की विधा कजरी में है, वह किसी और में नहीं। लेकिन अब न झूले रहे, न कजरी को गाने वाली औरतें। दोनों परंपराओं ने एक साथ मिलकर दम तोड़ दिया। नए जमानी की कामकाजी औरतें कजरी के संबंध में कुछ भी नहीं जानती।
सावन और झूलों की परंपरा का दीदार थोड़ा-थोड़ा कोरोना काल में हुआ था। जब, ऐसा महसूस हुआ कि समय खुद भागते-भागते थक गया। इसलिए कोरोना का बहाना लेकर थोड़ा ठहरा था। कोरोना महामारी के चलते लोग शहर छोड़कर गांवों में पहुंचे थे, तो उन्हें कई जगहों पर झूले लगे दिखे, उन्हें देखकर महसूस किया, कि गुजरा जमाना फिर लौट आया। औरतों ने बागों में झूले सजाए, डीजे लगवाए। बीते समय की भांति झूला झूले, गाने गाए, उनको देखकर लोगों ने खूब आनंद उठाया। बच्चों के लिए वो दृश्य एकदम नए थे। दरअसल झूले कैसे होते हैं, किस तरह झूले जाते हैं ये सब उन्होंने किताबों में ही पढ़ा है। खैर, गनीमत समझें कि कोरोना ने पुरानी परंपराओं के दीदार तो करवाए। पर, जिंदगी एक बार फिर से भागम-भाग में फंस गई है। झूलों के कम अवधि वाले दृश्य हम सबके लिए बेमानी हो गए हैं।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
हिन्दुस्थान समाचार / मुकुंद