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ऑनलाइन गेमिंग और सोशल मीडिया, ऑस्ट्रेलिया जैसे प्रयोग की भी जरूरत

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ऑनलाइन गेमिंग और सोशल मीडिया, ऑस्ट्रेलिया जैसे प्रयोग की भी जरूरत


-डॉ. निवेदिता शर्मा

लोकसभा में 20 अगस्त 2025 को जब इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री अश्विनी वैष्णव ने ऑनलाइन खेल संवर्धन और विनियमन विधेयक, 2025 प्रस्तुत किया तब इस दिशा में यह भी स्‍पष्‍ट हो गया कि यह केवल एक विधायी औपचारिकता नहीं थी, डिजिटल युग की नई चुनौतियों के प्रति सरकार के दृष्टिकोण में आए बदलाव का इसे आप पुख्‍ता प्रमाण मान सकते हैं। इस विधेयक में रियल मनी गेमिंग और उसके विज्ञापनों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने, उल्लंघन करने वालों के लिए जेल और जुर्माने जैसी कठोर सजा का प्रावधान करने और साथ ही ई-स्पोर्ट्स, शैक्षणिक तथा सामाजिक खेलों को बढ़ावा देने का प्रावधान करता है। विधेयक में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि इस कदम का उद्देश्य समाज, विशेषकर युवाओं और कमजोर वर्गों को डिजिटल व्यसन के दुष्प्रभावों से बचाना है।

भारत में एक तरह से देखा जाए तो ऑनलाइन गेमिंग इंडस्ट्री पिछले एक दशक में अप्रत्याशित रफ्तार से बढ़ी है। आज इसका आकार 32,000 करोड़ रुपये तक पहुँच चुका है और अनुमान था कि 2029 तक यह उद्योग 80,000 करोड़ रुपये के स्तर को छू लेगा। लेकिन इस वृद्धि की असल नींव रियल मनी गेमिंग यानी पैसों के लालच और जुए जैसे खेलों पर आधारित रही। आँकड़े बताते हैं कि इंडस्ट्री का 86 प्रतिशत राजस्व इन्हीं खेलों से आता रहा है। यह वही खेल हैं, जिनमें किशोर और युवा अपनी मेहनत की कमाई, यहाँ तक कि उधार लिए पैसे भी गँवाते रहे। परिवार टूटे, सामाजिक रिश्ते बिगड़े, अवसाद और आत्महत्या के मामले बढ़े। अब तक हजार से कई अधिक की संख्‍या में लोग गेम के चक्‍कर में मौत को गले लगा चुके हैं। ऐसे में स्‍वभाविक है कि देश भर में सरकार का यह कदम ऐसे हालात में न केवल उचित है बल्कि यह समय की माँग भी है। लेकिन इसके साथ ही जिम्‍मेदारीपूर्ण यह मांग भी उठना स्‍वभाविक है कि यदि सरकार डिजिटल व्यसन की इस समस्या को ऑनलाइन गेमिंग के संदर्भ में गंभीरता से देख सकती है तो क्या वही तर्क सोशल मीडिया पर लागू नहीं होना चाहिए?

इससे जुड़े तथ्‍य दुनिया के सामने आज मौजूद है, फिर अनुभव भी यही बताता है कि सोशल मीडिया का असर कहीं अधिक व्यापक और कहीं अधिक गहरा है। यह न केवल आर्थिक नुकसान का कारण बनता है बल्कि मानसिक स्वास्थ्य, सामाजिक ताने-बाने और लोकतांत्रिक विमर्श के लिए भी गंभीर खतरा है। ऑस्ट्रेलिया का हालिया निर्णय इस संदर्भ में बेहद प्रासंगिक है। वहाँ संघीय सरकार ने ऐलान किया है कि 16 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को फेसबुक, इंस्टाग्राम, टिकटॉक, यूट्यूब, स्नैपचैट, रेडिट और एक्स जैसे प्लेटफ़ॉर्म्स पर किसी भी रूप में सक्रिय रहने की अनुमति नहीं होगी। यह कानून आने वाले चार महीनों में लागू होगा और सोशल मीडिया कंपनियों को 10 दिसंबर तक सभी नाबालिग खातों को हटाना होगा। केवल इतना ही नहीं, इन कंपनियों को आयु सत्यापन की ऐसी प्रणाली लागू करनी होगी जिससे भविष्य में नाबालिग नए खाते न बना सकें। यह प्रतिबंध इतना कठोर है कि माता-पिता की अनुमति से भी बच्चों को इन प्लेटफ़ॉर्म्स तक पहुँचने की छूट नहीं दी जाएगी।

ऑस्ट्रेलिया में यह निर्णय एकाएक नहीं लिया गया है, सोशल मीडिया ने बच्चों और किशोरों को जिस तरह की लत में जकड़ा है, उसने मानसिक स्वास्थ्य की समस्याओं को कहीं अधिक बढ़ा दिया है। आत्महत्या के मामलों में वृद्धि, अवसाद और चिंता जैसी बीमारियों का फैलाव और नींद के गंभीर संकट अब विश्व स्तर पर दर्ज किए जा रहे हैं। स्‍वभाविक है ऑस्‍ट्रेलिया में यही सब कुछ बड़े स्‍तर पर देखा गया, जिसके बाद ऑस्ट्रेलियाई सरकार इस निष्‍कर्ष पर पहुंची कि बच्चों को वास्तविक जीवन और डिजिटल जीवन के बीच संतुलन बनाना सिखाना होगा और इसके लिए कठोर कानून ही कारगर उपाय है।

भारत के संदर्भ में स्थिति और भी गंभीर है। यहाँ युवाओं की संख्या सबसे अधिक है और इंटरनेट तक पहुँच अब गाँव-गाँव तक हो चुकी है। रिपोर्टों के अनुसार, भारतीय किशोर प्रतिदिन औसतन चार से पाँच घंटे सोशल मीडिया पर बिताते हैं। यह समय उनके अध्ययन, परिवार के साथ बिताए जाने वाले पलों और वास्तविक सामाजिक संबंधों से छीन लिया जाता है। जिस दौर में शिक्षा और कौशल विकास पर अधिक ध्यान देना चाहिए, उसी समय उनका मन टिकटॉक, इंस्टाग्राम रील्स और यूट्यूब शॉर्ट्स जैसी सतही चीज़ों में उलझा रहता है। सोशल मीडिया के दुष्प्रभाव केवल समय की बर्बादी तक सीमित नहीं हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन और अनेक मानसिक स्वास्थ्य अध्ययनों ने स्पष्ट किया है कि इन प्लेटफ़ॉर्म्स का अत्यधिक प्रयोग अवसाद, चिंता और नींद की कमी का कारण बन रहा है। किशोरावस्था में यह मानसिक असंतुलन और भी खतरनाक रूप ले लेता है। भारत जैसे देश में, जहाँ मानसिक स्वास्थ्य सुविधाओं की भारी कमी है, वहाँ यह समस्या एक राष्ट्रीय संकट से किसी भी स्‍तर पर कम नहीं मानना चाहिए।

इसके अतिरिक्त, सोशल मीडिया बच्चों के लिए आर्थिक शोषण का कारण भी बन रहा है। इन-ऐप परचेज़ और वर्चुअल गिफ्टिंग जैसी व्यवस्थाओं ने नाबालिगों को पैसे खर्च करने की आदत डाल दी है। कई बार यह खर्च उनकी आर्थिक क्षमता से कहीं अधिक होता है, जिससे परिवारों पर बोझ पड़ता है। सांस्कृतिक दृष्टि से भी यह प्रवृत्ति चिंताजनक है। हिंसा, अश्लीलता और असंस्कारी कंटेंट ने किशोरों के मन-मस्तिष्क को गहराई से प्रभावित किया है और पारंपरिक भारतीय मूल्यों से उन्हें दूर कर दिया है।

यदि भारत ने ऑनलाइन गेमिंग पर सख्ती दिखाते हुए रियल मनी गेमिंग को पूरी तरह प्रतिबंधित किया है तो अब समय है कि वही दृष्टिकोण सोशल मीडिया पर भी अपनाया जाए। इसके लिए सरकार को सबसे पहले आयु-आधारित प्रतिबंध लागू करना चाहिए। 16 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिए सोशल मीडिया पर पूर्ण रोक लगाई जाए और 16 से 18 वर्ष तक के किशोरों के लिए प्रतिदिन अधिकतम एक घंटे की सीमा तय की जाए। कंपनियों पर यह जिम्मेदारी डाली जाए कि वे आयु सत्यापन और स्क्रीन टाइम नियंत्रण सुनिश्चित करें। साथ ही, हानिकारक सामग्री के प्रसार पर कठोर दंडात्मक कार्रवाई होनी चाहिए। एल्गोरिद्म आधारित डोपामीन ट्रैप यानी बार-बार दिखाए जाने वाले शॉर्ट वीडियो, रील्स और ट्रेंड्स को सीमित किया जाना चाहिए क्योंकि ये युवाओं को लगातार स्क्रीन से चिपकाए रखते हैं। इस दिशा में यूरोप और अमेरिका में भी बहस चल रही है, लेकिन भारत को ऑस्ट्रेलिया की तरह ठोस कदम उठाने होंगे।

शिक्षा और जागरूकता का पहलू भी उतना ही महत्वपूर्ण है। स्कूलों में डिजिटल साक्षरता और सोशल मीडिया व्यसन पर अध्याय जोड़े जाने चाहिए ताकि बच्चों को छोटी उम्र से ही इन खतरों की समझ हो। साथ ही युवाओं को विकल्प उपलब्ध कराना भी जरूरी है। कला, खेल, संगीत, हस्तशिल्प और सामुदायिक गतिविधियाँ इसका अच्‍छा विकल्प हैं। इसके अलावा सरकार द्वारा सुरक्षित भारतीय सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स को प्रोत्साहित करना चाहिए जो ज्ञान, संवाद और रचनात्मकता पर आधारित हों। यदि भारत समय रहते इस दिशा में कदम उठाता है तो इसके दूरगामी लाभ होंगे। युवाओं का मानसिक स्वास्थ्य बेहतर होगा, वे पढ़ाई और करियर पर अधिक ध्यान देंगे, परिवार और समाज में वास्तविक संबंध मजबूत होंगे और राष्ट्र की सांस्कृतिक दिशा सुरक्षित रहेगी। फेक न्यूज़ और नफ़रत की राजनीति का असर भी कम होगा और लोकतंत्र अधिक स्वस्थ बनेगा।

यहां कहना यही है कि जैसे भारत ने ऑनलाइन गेमिंग पर सख्ती दिखाकर यह संकेत दिया है कि वह युवाओं के भविष्य को लेकर गंभीर है। अब आवश्यकता है कि यही दृष्टिकोण सोशल मीडिया पर भी अपनाया जाए। युवा पीढ़ी राष्ट्र की रीढ़ है। यदि उसे डिजिटल गुलामी, व्यसन और मानसिक असंतुलन की ओर धकेल दिया गया तो यह केवल परिवारों का नहीं, पूरे राष्ट्र का संकट होगा। इसलिए भारत सरकार को ऑस्ट्रेलिया के उदाहरण से प्रेरणा लेकर, अपने संदर्भ के अनुसार, कठोर और स्पष्ट नीति तुरंत लागू करनी चाहिए। यही समय की मांग है और यही आने वाली पीढ़ियों के प्रति हमारी जिम्मेदारी भी है ।

(लेखिका, मध्‍य प्रदेश बाल अधिकार संरक्षण आयोग की सदस्‍य हैं।)

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हिन्दुस्थान समाचार / डॉ. मयंक चतुर्वेदी