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महर्षि अरविन्द और हिन्दी की महत्ता

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महर्षि अरविन्द और हिन्दी की महत्ता


डॉ. विपिन कुमार

विश्व हिन्दी परिषद द्वारा हाल ही में 'श्री अरविन्द : हिन्दी भाषा और विकसित भारत' विषय में एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया गया। इस सम्मेलन में केन्द्रीयमंत्री एसपी सिंह बघेल, केंद्रीयमंत्री एवं वरिष्ठ सांसद फग्गन सिंह कुलस्ते, पूर्व राज्यसभा सदस्य आरके सिन्हा, पूर्वमंत्री डॉ. सत्यनारायण जटिया, पूर्व सांसद पद्मश्री लक्ष्मी प्रसाद ,राज्यसभा सदस्य राम चंद्र जांगड़ा, पूर्व सांसद केसी त्यागी, मिजोरम के राज्यपाल कंभमपाठी हरि बाबू जैसे कई गणमान्य हस्तियों के साथ कई शिक्षार्थी भी उपस्थित रहे। इस दौरान भारतीय आध्यात्मिक क्रांति के जनक माने जाने वाले महर्षि अरविन्द के विचारों को बढ़ावा देने के साथ ही, हिन्दी भाषा की महत्ता पर भी विशेष बल दिया गया।

निःसंदेह महर्षि अरविन्द ने अपने दर्शन से राष्ट्र और राष्ट्रीयता की संकल्पना को एक व्यापक दृष्टिकोण प्रदान किया है। उनका मानना था कि राष्ट्रीयता एक ऐसी आध्यात्मिक शक्ति है, जो सदैव विद्यमान रहती है और इसका कभी ह्रास नहीं होता है। वह इसे अपना सच्चा धर्म मानते हुए, ईश्वरीय कार्य की संज्ञा देते थे। वह भारत में एक आदर्श आध्यात्मिक समाज का निर्माण करना चाहते थे। उनका विचार था कि एक पूर्ण समाज की स्थापना अपूर्ण नागरिकों द्वारा नहीं हो सकती है और बिना अध्यात्म के किसी व्यक्ति की पूर्णता ही संभव नहीं है।

यही वजह है कि उन्होंने 'धर्म' को ही भारतीय जनतंत्र का मूल बताया। उन्होंने राजनीति व योग को एकीकृत करने के अलावा भारतीय मूल्यों को भी एकीकृत किया। शायद उनमें विविधताओं को समाहित करने की यह क्षमता, उनके व्यक्तिगत जीवन की विविधताओं से प्रेरित थीं। महर्षि अरविन्द जिस राष्ट्रवाद की वकालत करते थे, उसमें कोई द्वेष, आक्रमता या खिन्नता नहीं है। वह पूर्ण स्वराज के लिए सेवा और आत्मबलिदान को अनिवार्य मानते थे। हमारे इस सम्मेलन में उनके इन्हीं विचारों को बढ़ावा देने का प्रयास किया गया। सम्मेलन के समापन सत्र में सभी प्रतिभागियों को प्रमाण पत्र, स्मारिका एवं स्मृति चिह्न भी वितरित किए गए। देश-विदेश से इस सम्मेलन में 250 से अधिक शोध पत्र प्राप्त हुए, जिनमें से 21 शोधपत्रों को सर्वश्रेष्ठ घोषित किया गया।

महर्षि अरविन्द के विचार केवल भारत की आजादी तक सीमित नहीं थे। वह भारत की स्वाधीनता में विश्व की नैतिक और आध्यात्मिक स्वतंत्रता को अन्तर्निहित मानते थे। उनका विश्वास था कि भारत एक भौगोलिक इकाई के रूप में आध्यात्मिक पूर्णता के लिए सम्पूर्ण विश्व की अगुवाई कर सकता है।

उन्हें भारत की सांस्कृतिक परम्पराओं, प्राचीन मूल्यों, पौराणिक ग्रंथों पर बेहद गर्व था। वह रामायण और महाभारत में वर्णित 'धर्म युद्ध' से प्रभावित थे और उन्होंने उसी प्रकार अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ भारतीय जनमानस को संगठित होकर अपने नैतिक बल द्वारा संघर्ष करने की अपील की। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि आज हमें हिंदी को एक वैश्विक आयाम देने के लिए एक ऐसी ही रणनीति की आवश्यकता है। क्योंकि, हिन्दी एक ऐसी भाषा है, जो न केवल हमारे देश के आधे से अधिक भू-भाग को जोड़ती है, बल्कि यह पूरे विश्व में फैले भारतवासियों को भी एक-सूत्र में पिरोने का काम करती है।

परंतु, आज जब हम पर हर तरफ अंग्रेजियत हावी है, तो हमें याद रखने की आवश्यकता है कि कोई भी भाषा सिर्फ विचारों की अभिव्यक्ति है। यह हमारी क्षमता को परिलक्षित नहीं करती है। यह संवाद का एक ऐसा माध्यम है, जिसके जरिये मानव जाति ने सर्वोच्चता को हासिल किया है, तो आज हमारे सामने सवाल है कि हम अपनी ही भाषा, अपनी ही बोली को लेकर इतनी कुंठित क्यों हैं? हमें इस मानसिकता से बाहर निकलना होगा और हमारी जो क्षमता है उसमें निखार लाना होगा।

इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हमें हिन्दी भाषा को अपनी पूरी शक्ति के साथ प्रचारित और प्रसारित करने की आवश्यकता है। यह देखना सुखद है कि विश्व हिन्दी परिषद द्वारा आयोजित कार्यक्रमों को आज वैश्विक स्तर पर लोकप्रियता मिल रही है। इससे हमें समर्पण भाव की प्रेरणा मिलती है। आज समय की महती मांग है कि हम विश्व के जन-जन तक हिन्दी को प्रचारित और प्रसारित करने के लिए एक आंदोलन के रूप में हिन्दी दिवस को एकजुट होकर सफल बनाएं। हमें हिन्दी और भारतीय संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन को बढ़ावा देने के लिए विश्व के कोने-कोने में इस प्रकार के कार्यक्रम करने होंगे।

(लेखक, विश्व हिन्दी परिषद से संबद्ध हैं।)

हिन्दुस्थान समाचार / मुकुंद