home page

भारत में बाबर की मस्‍जिद से अधिक चिंता उस सोच की है

 | 
भारत में बाबर की मस्‍जिद से अधिक चिंता उस सोच की है


-डॉ. मयंक चतुर्वेदी

पश्‍चिम बंगाल में मुर्शिदाबाद के भरतपुर से टीएमसी विधायक हुमायूं कबीर पश्चिम बंगाल में बाबरी नाम से मस्जिद बनाने का दावा कर रहे हैं। हालांकि उनकी इस जिद के कारण से टीएमसी से उन्‍हें हाल ही में पार्टी से बाहर निकाला है, पर समस्‍या अभी समाप्‍त नहीं हुई है। उनके समर्थकों ने मुर्शिदाबाद में कई जगहों पर बाबरी नाम से मस्जिद बनाने के पोस्टर भी लगाए हैं। बात अब उस अस्‍मिता की है जिसमें सबसे बड़ा प्रश्‍न यह उठता है कि आखिर मुसलमान बाबर के नाम की माला क्‍यों जप रहे हैं, जबकि भारत एक पंथ निरपेक्ष देश है, जिसमें किसी भी अत्‍याचारी, हिंसा करनेवाले आततायी के लिए कोई जगह नहीं है।

वैसे कोई भी मस्जिद बनाने के लिए स्‍वतंत्र है, किंतु प्रश्‍न यही है कि इसके बाद भी बाबर के नाम पर इस देश में मस्जिद क्‍यों मुसलमान बनाना चाहते हैं। हुमायूं आज जो कह रहे हैं उस पर भी सभी को गौर करना चाहिए, वे कहते हैं, ‘नाम पर आपत्ति कैसे है? अगर मेरा बेटा पैदा हो तो मैं उसका क्या नाम रखूं, ये बताने वाले दूसरे कौन होते हैं। ये मेरे कौम का मामला है। कौम के लोग मदद कर रहे हैं।' बात एक दम साफ है, कौम के लोग मदद कर रहे हैं, इसलिए ये बाबर के नाम की फिर से मस्‍जिद भारत में बनाई जा रही है।

वस्‍तुत: इतिहास में दर्ज घटनाएं उन तारीखों से नहीं मिटाई जा सकती जो बाबर के क्रूर अत्‍याचार की कहानी कहती हैं। भारत के इतिहास में अनेक आक्रांताओं ने आकर यहाँ के समाज, संस्कृति और परंपराओं पर गहरे घाव छोड़े हैं, परन्तु ज़हीरुद्दीन मुहम्मद बाबर का नाम उनमें सबसे प्रमुख रूप रहा है। बाबर को लेकर जो वर्ग उसे एक आदर्श या गौरवपूर्ण चरित्र के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास करता है, उसे एक बार उन तमाम प्रामाणिक इतिहास, विशेषकर बाबर की आत्मकथा बाबरनामा, गुलबदन बेगम का हुमायूँनामा और अनेक स्वतंत्र इतिहासकारों के विवरण जरूर देखने चाहिए। यह सभी स्‍पष्ट करते हैं कि बाबर एक ऐसा विदेशी आक्रांता था जो भारत में सत्ता, लूट और धार्मिक (इस्‍लामिक) वर्चस्व स्थापित करने आया था। उसकी नीतियाँ, उसके सैन्य अभियान और उसकी मानसिकता का केंद्र बिंदु विरोध करने वाले काफिरों का विनाश और धन की लूट थी।

बाबर का भारत पर आगमन उसके युद्ध केवल राजनीतिक महत्वाकांक्षा तक सीमित नहीं थे। बाबर स्वयं अपने फतहनामे में लिखता है कि इस्लाम की खातिर जंगलों में भटका, हिंदुओं और मूर्तिपूजकों से युद्ध का संकल्प लिया और अंततः गाजी बना। यह कथन स्पष्ट संकेत देता है कि बाबर का अभियान धार्मिक इस्‍लामिक, जिहादी कट्टरता से प्रेरित था। खानवा की लड़ाई में राणा सांगा पर विजय प्राप्त करने के बाद उसने स्वयं को गाजी घोषित किया, एक ऐसी उपाधि जिसका अर्थ है अन्य मत के अनुयायियों को मारने वाला। यह गौरवपूर्ण उपलब्धि नहीं है, यह तो हिंसा की मानसिकता की स्वघोषित स्वीकारोक्ति है।

बाबर जहाँ-जहाँ गया, वहाँ उसने अपनी क्रूरता के निशान छोड़े। हुमायूँनामा में गुलबदन बेगम का वर्णन बाजौर के किले पर हुए उसके हमले का है, जिसमें लिखा है कि बाबर ने दो-तीन घड़ी में दुर्ग जीतकर सभी निवासियों को मरवा दिया क्योंकि वहाँ कोई मुसलमान नहीं था। यह कोई युद्ध नीति नहीं कही जा सकती, यह तो गैर मुसलमानों के प्रति धार्मिक असहिष्णुता का भयानक उदाहरण है। यही नहीं, बाबर के आदेश पर या उसके सेनापतियों की कार्रवाई से अनेक मंदिर ध्वस्त किए गए। संभल में मंदिर को मस्जिद में परिवर्तित किया गया, चंदेरी में मंदिर तोड़े गए और उरवा के जैन मंदिरों का विनाश किया गया। अयोध्या में राम जन्मभूमि पर निर्मित प्राचीन मंदिर को उसके सेनापति मीर बाकी ने उसके आदेश पर ध्वस्त कर दिया और उसी स्थान पर मस्जिद बनाई।

इतिहासकार सीताराम गोयल ने अपनी पुस्तक Hindu Temples: What Happened to Them? में इन विध्वंसों को प्रमाणों सहित प्रस्तुत किया है और यह दिखाया है कि बाबर मंदिरों को नष्ट करता ही था और स्वयं इस विनाश को अपने शासन का हिस्सा मानता था। मोहन मुन्दाहिर की घटना बाबर की क्रूरता का एक और प्रमाण है। बाबरनामा के अनुसार, एक काजी की शिकायत पर बाबर ने अली कुली हमदानी को तीन हजार सैनिकों के साथ भेजकर प्रतिशोध की कार्रवाई करवाई। इसमें लगभग एक हजार हिंदू मारे गए और इतने ही स्त्री-पुरुष और बालक बंदी बनाए गए। यह कोई सैन्य संघर्ष नहीं था, सीधे तौर पर प्रतिशोध की हिंसा थी। बाबर ने मृतकों के कटे हुए सिरों की मीनार बनवाई जो उस समय की मुगल परंपरा में क्रूरता का प्रतीक थी। बंदी बनाए गए हिन्‍दू लोगों की स्त्रियों को सैनिकों में बाँट दिया गया और मोहन मुन्दाहिर को जमीन में गाड़कर तीरों से मार डाला गया। यह दृश्य अपने आप में बहुत कुछ कह देता है, यह कोई विजय का उत्‍सव नहीं कहा जा सकता है, यह तो अमानवीय अत्याचार का घोर प्रमाण है।

1527 और 1528 के उसके अभियान, विशेषकर राणा सांगा और मेदिनीराय के विरुद्ध, भारतीय इतिहास पर गहरी चोट हैं। चंदेरी के युद्ध के बाद वहाँ की रानी मणिमाला और लगभग 1600 महिलाओं ने जौहर कर लिया, ताकि वे मुगल सेना के अत्याचारों का शिकार न बनें।

कहना होगा कि बाबर का भारत से स्वाभाविक, सांस्कृतिक या भावनात्मक कोई संबंध नहीं था। वह फरगना का निवासी था। भारत उसके लिए मजहबी (धार्मिक) और सैन्य विजय का केंद्र था। उसने भारत में अपने चार वर्ष के शासन के दौरान सिर्फ लूट, सत्ता विस्तार और गैर मुसलमानों पर घोर अत्‍याचार, हिंसा की । उसने कोई निर्माण कार्य, प्रशासनिक सुधार या सांस्कृतिक योगदान नहीं दिया जिसके आधार पर उसे भारतीय इतिहास में एक आदर्श शासक माना जा सके। उसका शासन विनाश, लूट और सांप्रदायिक द्वेष की घटनाओं से भरा हुआ है।

वस्‍तुत: भारत में मस्जिदों के निर्माण पर कोई आपत्ति नहीं, किंतु बाबर जैसे आक्रमणकारी के नाम पर मस्जिद का नाम रखना ऐतिहासिक और नैतिक दोनों स्तरों पर अनुचित है। सम्मान उन व्यक्तियों का होना चाहिए जिन्होंने मानवता, सहिष्णुता और सभ्यता के लिए कार्य किया हो, न कि उन लोगों का जिन्होंने स्वयं अपनी आत्मकथा में नरसंहार और मंदिरों के विध्वंस का बखान किया हो।

इस दृष्टि से देखा जाए तो बाबर का बचाव करना, उसे आदर्श बताना या उसकी स्मृति में निर्मित ढाँचों को सम्मानजनक स्थान देना एक प्रकार से भारत की सभ्यता, इसकी ऐतिहासिक पीड़ा और इसकी सांस्कृतिक अस्मिता के प्रति संवेदनहीनता का परिचायक है। यह स्पष्ट है कि भारत जैसे बहु सांस्कृतिक और बहु धार्मिक देश में किसी भी समुदाय के पूजा स्थलों का विरोध नहीं किया जा सकता, परंतु यह भी उतना ही स्पष्ट है कि किसी ऐसे व्यक्ति का सम्मान करना जिसने मानवता और भारतीय समाज पर आघात किया, वास्‍तव में राष्‍ट्रीय चेतना के विरुद्ध है।

---------------

हिन्दुस्थान समाचार / डॉ. मयंक चतुर्वेदी