ताइवान संकट, जापान की सुरक्षा नीति और भारत के लिए बदलता इंडो-पैसिफिक समीकरण
- डॉ प्रियंका सौरभ
जापान और चीन के बीच बढ़ते तनाव के केंद्र में आज ताइवान का प्रश्न है, जिसने पूरे इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में शक्ति-संतुलन को नया मोड़ दे दिया है। भौगोलिक निकटता, समुद्री हितों और ऐतिहासिक संवेदनशीलताओं के कारण जापान ताइवान की स्थिरता को अपने ही राष्ट्रीय सुरक्षा हितों का विस्तार मानता है। पिछले कुछ वर्षों में चीन द्वारा ताइवान के आसपास की सैन्य गतिविधियों में तेज़ी- चाहे वह वायु क्षेत्र का उल्लंघन हो, मिसाइल परीक्षण हों या बड़े पैमाने पर नौसैनिक अभ्यास ने जापान की खतरा-धारणा को पूरी तरह बदल दिया है। साल 2022 में चीनी मिसाइलों का जापान के विशेष आर्थिक क्षेत्र में गिरना इस बात का सटीक संकेत था कि ताइवान संकट सीधे जापान के भू-राजनीतिक वातावरण को प्रभावित करता है।
इसी कारण जापान ने अपनी सुरक्षा-रणनीति में अभूतपूर्व परिवर्तन किए हैं। दशकों से चले आ रहे शांतिवादी दृष्टिकोण के बावजूद उसने रक्षा-व्यय को दोगुना कर जीडीपी के 2% तक ले जाने का निर्णय लिया है। लंबे समय से निष्क्रिय पड़े सैन्य ढाँचों को पुनर्जीवित किया जा रहा है, दक्षिण-पश्चिमी द्वीपों पर नई मिसाइल तैनाती की जा रही है और अमेरिका के साथ संयुक्त संचालन क्षमता को काफी बढ़ाया गया है। जापान समझता है कि यदि ताइवान में संघर्ष उत्पन्न होता है तो चीन की आक्रामकता सेंकाकू द्वीपों और जापानी जलक्षेत्रों की ओर भी बढ़ सकती है। इसलिए उसकी पूरी सुरक्षा-दृष्टि अब ताइवान जलडमरूमध्य की स्थिरता से गहराई से जुड़ चुकी है।
यह परिवर्तन उसकी विदेश-नीति में भी स्पष्ट दिखाई देता है। पहले जहाँ जापान ताइवान मुद्दे पर खुलकर बोलने से कतराता था, आज वह अंतरराष्ट्रीय मंचों पर बार-बार “ताइवान जलडमरूमध्य में शांति और स्थिरता” को अनिवार्य बता रहा है। चीन के प्रति उसका कूटनीतिक रुख कहीं अधिक सख्त हुआ है। ताइवान को लेकर जापानी प्रधानमंत्री की टिप्पणी पर चीन की धमकियों के बाद जापान द्वारा चीनी राजदूत को तलब करना इस बदलाव का प्रतीक है। साथ ही जापान अब क्वाड, आसियान देशों और यूरोपीय साझेदारों के साथ नई सुरक्षा-संरचनाएँ विकसित कर रहा है, ताकि चीन की बढ़ती सैन्य क्षमता का संतुलन बनाया जा सके।
यह संपूर्ण परिदृश्य भारत के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। भारत और जापान दोनों चीन की आक्रामक प्रवृत्ति से चिंतित हैं, इसलिए दोनों देशों के बीच सुरक्षा-सहयोग स्वाभाविक रूप से गहरा हो रहा है। क्वाड की सामरिक महत्ता बढ़ी है और हिंद-प्रशांत में समुद्री निगरानी, नौसैनिक अभ्यास और तकनीकी सहयोग में तेजी आई है। जापान का सैन्य आधुनिकीकरण भारत के लिए रक्षा-उद्योग, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और समुद्री सुरक्षा के क्षेत्र में नए अवसर खोलता है।
परंतु चुनौतियाँ भी कम नहीं हैं। भारत चीन के साथ स्थिर संबंध बनाए रखना चाहता है, क्योंकि सीमा-क्षेत्र की शांति और आर्थिक सहयोग उसकी प्रत्यक्ष आवश्यकता है। किंतु चीन-जापान तनाव का बढ़ना भारत-चीन संतुलन को और जटिल बनाता है। यदि भारत जापान और अमेरिका के साथ ज्यादा निकटता दिखाता है तो चीन सीमा पर दबाव बढ़ा सकता है। दूसरी बड़ी चिंता ताइवान जलडमरूमध्य में किसी भी सैन्य संकट से जुड़ी है। भारत के लिए यह समुद्री मार्ग अत्यंत महत्वपूर्ण है; यहाँ किसी भी अस्थिरता से ऊर्जा आयात, व्यापार, इलेक्ट्रॉनिक चिप आपूर्ति और संपूर्ण समुद्री परिवहन पर भारी असर पड़ेगा। इससे भारत की आर्थिक गति और सुरक्षा व्यवस्था दोनों को जोखिम हो सकता है।
तीसरी चुनौती अमेरिका की “रणनीतिक अस्पष्टता” है। अमेरिका ने कभी स्पष्ट नहीं कहा कि ताइवान पर हमले की स्थिति में वह सैन्य हस्तक्षेप करेगा या नहीं। यह अनिश्चितता पूरे क्षेत्र को दुविधा की स्थिति में डालती है। जापान और ताइवान तो इससे चिंतित हैं ही, भारत के लिए भी यह प्रश्न महत्वपूर्ण है, क्योंकि क्वाड की वास्तविक उपयोगिता इसी पर निर्भर करती है कि अमेरिका किस हद तक निर्णायक भूमिका निभाता है। यदि अमेरिका अनिश्चित रहता है, तो चीन को क्षेत्र में और आक्रामक कदम उठाने का प्रोत्साहन मिल सकता है, जिसका असर भारत की सुरक्षा-संतुलन पर भी पड़ेगा।
इन जटिलताओं के बीच भारत के लिए अवसर भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं। जापान की नई सक्रियता रक्षा-उद्योग सहयोग, समुद्री तकनीक, पनडुब्बी क्षमता और संयुक्त सैन्य अभ्यासों को नई दिशा दे सकती है। भारत और जापान मिलकर एक स्थिर और नियम-आधारित इंडो-पैसिफिक की दिशा में ठोस कदम उठा सकते हैं। व्यापार-मार्गों का विविधीकरण भी भारत के लिए अनिवार्य होगा, ताकि ताइवान जलडमरूमध्य पर अत्यधिक निर्भरता कम हो सके।
अंततः ताइवान संकट ने यह स्पष्ट कर दिया है कि इंडो-पैसिफिक का भविष्य अब पुराने समीकरणों पर नहीं चल सकता। जापान अपनी सुरक्षा-रणनीति को नए सिरे से परिभाषित कर रहा है, चीन अपनी शक्ति का विस्तार जारी रखे हुए है और अमेरिका अपनी भूमिका को आंशिक रूप से पुनर्संतुलित कर रहा है। ऐसे परिदृश्य में भारत को अत्यंत संतुलित, चतुर और बहुस्तरीय कूटनीति अपनानी होगी- ऐसी कूटनीति, जो न तो चीन से अनावश्यक टकराव पैदा करे और न ही जापान, अमेरिका तथा अन्य साझेदारों के साथ बढ़ते सहयोग को धीमा करे।
इंडो-पैसिफिक के बदलते समीकरण भारत के लिए चुनौतीपूर्ण भी हैं और अवसर भी। यह समय भारत की सामरिक परिपक्वता, आर्थिक शक्ति-विस्तार और निर्णायक विदेश-नीति का है। यदि भारत इन सभी पहलुओं को संतुलित रूप से साध लेता है तो वह न केवल क्षेत्रीय शक्ति-संतुलन को प्रभावित करेगा बल्कि आने वाले वर्षों में इंडो-पैसिफिक के भविष्य का एक प्रमुख निर्धारक भी बनेगा।
(लेखिका, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / संजीव पाश

