home page

ढलान पर दोस्ती, संजोने की जरूरत है !

 | 
ढलान पर दोस्ती, संजोने की जरूरत है !


गिरीश्वर मिश्र

समकालीन ज़िन्दगी में निरंतर बढ़ती वैयक्तिकता के दौर में अतिव्यस्त होता हुआ आज आदमी अपने ही अंदर सिकुड़ता चला जा रहा है। रिश्तों की उपेक्षा और उनका हाशियाकरण जिस तेजी से हो रहा है वह उस समाज के ताने-बाने को झटका देने वाला साबित हो रहा है जिसमें साथ चलने, साथ बोलने, मन के मिलने और साझे में विचरने पर जोर दिया जाता था। हमारी प्रार्थना ही थी- संगच्छध्वम् संवदध्वम् संवदध्वम् संवो मनांसि जानताम्। अब यह वैश्विक स्तर पर एक विशेष चिंता पैदा करने वाली बात होती जा रही है कि आज की दुनिया के छोटे-बड़े, विकसित-कम विकसित लगभग हर तरह के देशों में आम जनों में मित्रता की प्रवृत्ति में बड़ी तेजी से गिरावट दर्ज की जा रही है। अब लोगों को ऐसे क़रीबी दोस्त नहीं मिलते जिन पर भरोसा किया जा सके। सिमटते-सिकुड़ते रिश्तों के दौर में ऐसे मीत और साथी नहीं मिल रहे जिनके साथ खुल कर दुख-दर्द बांटा जा सके, मन हल्का किया जा सके और मौक़ा पड़ने पर पुकारा जा सके।

मित्रता स्वभाव से सहयोगी हुआ करती थी और एक मित्र दूसरे की उन्नति की कामना करता था। बढ़ती प्रतिस्पर्धा के वर्तमान दौर में मित्रता की जगह लोगों में अपनी निजी सामर्थ्य, शक्ति और समृद्धि को अधिकाधिक पर्याप्त बनाने और उसमें सुख ढूँढने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। थोड़े समय तक तो जीने का यह तरीका सही और ठीक लगता है पर ज़िन्दगी की लंबी दौड़ में थोड़े दिनों में ही इसकी पोल खुलने लगती है। आत्मरति की मृग-मरीचिका कदापि अंतहीन नहीं होती है और उसका तिलस्म टूटने पर आदमी को आगे कोई राह नहीं सूझती है।

अब शहरी इलाकों में लोगों को अपने परिचित लोगों की संख्या देखें तो लगता है वह खूब बढ़ रही है। मोबाइल पर ‘कांटैक्ट’ तो निरंतर बढ़ते रहते हैं। यानी हम जिन लोगों के संपर्क में रहते हैं उनकी तादाद बढ़ती जा रही है। परंतु उनमें से ज्यादातर ऐसे ही होते हैं जिनके साथ क्षणिक रिश्ता होता है। गहरी, टिकाऊ और सच्ची दोस्ती जो ज़िन्दगी में मददगार होती है कम होती जा रही है। कभी लोग विभिन्न आयोजनों और क्लब या होटल आदि में भी परिचित लोगों से भी लोग ख़ुशी से मिलते-जुलते थे पर अब हालात ये हो रहे हैं कि भीड़ में भी लोग अलग-थलग और अकेले ही रहते हैं। अब लोग अकेले ही खाना-पीना पसंद करते हैं। मित्रता के अभाव में ज़िन्दगी अंदर से खोखली और सतह पर भरी-पूरी दिखती है।

स्थिति इतनी नाजुक हो रही है कि दोस्ती अब सिर्फ एक सामाजिक मुद्दा नहीं रहा। वह एक विकट सांस्कृतिक समस्या का रूप ले रहा है। सच्ची बात तो यह है कि दोस्ती के लिए समय निकालना अब विलासिता नहीं बल्कि एक ख़ास ज़रूरत हो चुकी है। आज की कटु सच्चाई है कि अकेलापन एक लत बनता जा रहा है। अगर हम दोस्ती की कद्र नहीं करेंगे और उसमें निवेश नहीं करेंगे तो हम न सिर्फ़ नए दोस्त बना सकेंगे, बल्कि पुराने रिश्ते भी खो देंगे। अनेक शोध अध्ययन यह दिखाते हैं कि अकेलेपन से कई बीमारियां और अस्वास्थ्यकर स्थितियां पैदा हो रही हैं। वे हृदय रोग और अवसाद को बढ़ाती हैं। उनसे आदमी की असमय मृत्यु का जोखिम भी बढ़ जाता है।

मित्रता मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक स्वास्थ्य के लिए एक आधारभूत आवश्यकता है। हार्वर्ड विश्वविद्यालय के एक 80-वर्षों से चल रहे एक दीर्घकालिक अनुसंधान को मानें तो आदमी के लिए सच्ची खुशी और स्वास्थ्य के बीच बड़ा घनिष्ठ संबंध है। जिंदगी की सच्चाई यही है कि रूपया-पैसा कमाया जा सकता है, रुतबा भी बदला जा सकता है लेकिन सच्चा दोस्त ही अकेला ऐसा होता है जो परिवार का रक्त संबंधी न होते हुए भी जीवन की हर परिस्थिति और चुनौती में आपके साथ चट्टान की तरह अटल खड़ा होता है। दोस्ती सचमुच ही एक ऐसा धन या खजाना है जो कभी चुकता या खत्म नहीं होता।

इसलिए सिर्फ़ जान-पहचान से संतुष्ट न हों- दोस्त बनायें और दोस्तों को आवश्यक प्रतिष्ठा और इज़्ज़त दें । अच्छे दोस्त ही हमारे असली धन होते हैं। इसलिए जरूरी है कि हम सब दोस्ती को बढ़ावा दें, उसके लिए समय निकालें, लोगों को क्षमा करने की आदत डालें और रिश्तों की यादें बनाएं। दोस्ती एक अवसर है जिसको बनाना बिगाड़ना हमारे ही हाथ में होता है। सच्चे दोस्तों के संग हमारी ज़िंदगी निश्चय ही खूबसूरत हो उठती है। आइए जिंदगी में दोस्ती को जगह दें। दोस्ती से जिंदगी को संवारा जा सकेगा।

(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

---------------

हिन्दुस्थान समाचार / संजीव पाश