गोवा की त्रासदी और भ्रष्टाचार की वह आग जिसने 25 जीवन छीन लिए
-कैलाश चन्द्र
गोवा की वह रात आज भी भारत की सामूहिक स्मृति में एक गहरे घाव की तरह दर्ज है, एक ऐसा घाव जिसका दर्द सिर्फ उन 25 परिवारों ने नहीं झेला जिनके घरों के चिराग उस हादसे में बुझ गए, इसे तो पूरे समाज ने महसूस किया है। सिलेंडर विस्फोट सिर्फ एक दुर्घटना नहीं है; वह उस अदृश्य लेकिन सर्वव्यापी दानव भ्रष्टाचार का नग्न, क्रूर और निर्दयी चेहरा है जिसने मानव जीवन की पवित्रता को पैसों की चकाचौंध में कुचलकर रख दिया।
वह क्लब जिसे नियमों के अनुसार ध्वस्त कर दिया जाना चाहिए था, जहाँ कानूनी मानकों का पालन अनिवार्य था, वहाँ कुछ व्यक्तियों के लालच ने कानून को अपनी जेब में रखा और रिश्वत की आग में जन जीवन की सुरक्षा को भस्म कर दिया। यह वही क्षण था जहाँ प्रशासनिक सत्य दम तोड़ गया और भ्रष्टाचार एक मौन हत्यारे की तरह भीतर तक उतर गया। परिणाम 25 जीवन राख में बदल गए, 25 परिवारों के भविष्य दफन हो गए और अनगिनत सपनों की लौ हमेशा के लिए बुझ गई।
भ्रष्टाचार की सबसे भयावह सच्चाई यही है कि उसका दंड अकसर अपराधी को नहीं मिलता; वह उन निर्दोष लोगों पर टूटता है जिनका अपराध से कोई लेना देना ही नहीं होता। यही सामाजिक त्रासदी है और यही हमारी सामूहिक नैतिक विफलता। इस घटना में दोष उन हाथों का है जिन्होंने नियमों की अनदेखी की, कागजों पर झूठी अनुमति लिखी, निरीक्षण को औपचारिकता में बदल दिया और एक इमारत को गैर कानूनी सहारे पर खड़ा रहने दिया। पर दंड मिला उन मासूम लोगों को, जो न आनंद की रात की कल्पना से बाहर थे और न किसी खतरे की आहट से परिचित। जीवन कभी-कभी इतनी निर्ममता से इंसाफ करता है कि दोषी बच निकलते हैं और निर्दोष बेबस होकर दंडित हो जाते हैं। गोवा की यह त्रासदी उसी विडंबना का सबसे दर्दनाक उदाहरण है।
इस हादसे की जड़ में मात्र तकनीकी खामियाँ नहीं हैं। अग्निशमन यंत्र नहीं थे, सुरक्षा द्वार अनुपस्थित थे, आपातकालीन रास्ते अपर्याप्त थे, पर यह केवल आधा सच है। पूरा सच तो वह है जिसे समाज बोलते हुए भी डरता है। इस त्रासदी की नींव उस भ्रष्ट मानसिकता ने रखी थी जो वर्षों से कानून का गला उसी तरह दबाती रही है जैसे रात में वह आग ने उन 25 लोगों का दम घोंट दिया। रिश्वत की वह अदृश्य मुद्रा, अनुमतियों का वह छलावा, निरीक्षण की वह औपचारिकता और प्रभावशाली लोगों का वह दबदबा, इन सबने मिलकर उस इमारत को बचाए रखा जो गिरनी चाहिए थी। जब वह इमारत गिरी, तो अपने साथ केवल दीवारें नहीं गिरीं, माएँ गिरीं, पिता गिरे, बच्चों की हँसी गिरी, परिवारों का भविष्य गायब हो गया। यही भ्रष्टाचार का स्वभाव है। वह केवल नैतिकता नहीं खाता, वह जीवन खाता है, विश्वास खाता है और समाज की रीढ़ को खोखला कर देता है।
भारतीय दर्शन ने सदियों पहले चेतावनी दी थी कि अधर्म का अंत निश्चित है; धर्म की रक्षा करने वाला ही सुरक्षित रहता है। यह केवल धार्मिक उपदेश नहीं है, यह तो समाज व्यवहार का कठोर मनोवैज्ञानिक सिद्धांत है। भ्रष्टाचार से कमाया गया हर पैसा, हर सुविधा, हर अनुचित लाभ एक कर्म ऋण लेकर आता है। एक ऐसा ऋण जिसे समय किसी न किसी रूप में वसूल ही लेता है। कई बार प्रकृति वह दंड उसी से नहीं लेती जिसने गलती की; वह दंड समाज को सहना पड़ता है, व्यवस्था को चुकाना पड़ता है या किसी मासूम की अकाल मृत्यु के रूप में सामने आता है। गोवा की यह घटना इस कर्म ऋण की भयावह परिणति है!
हम अक्सर कहते हैं कि भ्रष्टाचार सिस्टम की कमजोरी है, पर गोवा का सच कहता है कि भ्रष्टाचार दरअसल एक मानव हत्या की प्रक्रिया है। यह किसी एक विभाग, एक अफसर, एक व्यापारी का दोष नहीं; यह समाज के उस सामूहिक मौन का परिणाम है जहाँ कानून को कमजोर करने वालों को हम देखते तो हैं, पर हाथ नहीं उठाते, गलत को पहचानते हैं, पर बोलने का साहस नहीं करते। जब कानून की जगह पैसे का असर ले लेता है और नैतिकता की जगह लाभ का गणित बैठ जाता है, तब दुर्घटनाएँ आकस्मिक नहीं रह जातीं, वे नियोजित परिणाम बन जाती हैं। सुरक्षा एक भ्रम की तरह टूटता है और जीवन एक संख्या में बदल जाता है।
अब प्रश्न यह है कि क्या हम केवल आँकड़ों तक सीमित रहने वाले समाज बन जाएँगे? क्या 25 की संख्या हमें एक दिन रुलाएगी और अगले दिन हम आगे बढ़ जाएँगे? क्या मासूमों का यह बलिदान केवल कुछ दिनों की खबर बनकर रह जाएगा या यह हमें भीतर तक झकझोर कर उत्प्रेरित करेगा कि भ्रष्टाचार किसी एक का दोष नहीं। यह हमारी सामूहिक सहिष्णुता की उपज है। यदि समाज भ्रष्टाचार को सामान्य मानकर चलता रहेगा, तो ऐसी त्रासदियाँ अपवाद नहीं, धीरे धीरे नियम बन जाएँगी। ऐसे में यही वह क्षण है जहाँ हमें अपने भीतर झाँकना होगा। हम कहाँ चूक रहे हैं? कब जागेंगे? कब बोलेंगे? कब विरोध करेंगे?
गोवा की यह पीड़ा चेतावनी है कि भ्रष्टाचार का फल कभी न कभी प्रकट होता ही है। चाहे सत्ता के पतन में, चाहे परिवारों के विनाश में, चाहे मासूम जीवन की अकाल मृत्यु में। केवल अपराधी का नाम ढूँढ लेना पर्याप्त नहीं; समाज को स्वयं से भी पूछना होगा कि हम कब जागेंगे? हम अपने आचरण में कब परिवर्तन लाएँगे? सावधानी हटी, दुर्घटना घटी। यह शब्द कहावत तक सीमित नहीं हैं, ये एक जन त्रासदी का कठोर सत्य है। अब प्रश्न यह नहीं कि दोषी कौन है; बल्कि यह है कि भविष्य में ऐसे हादसों को रोकने की सामूहिक जिम्मेदारी कौन उठाएगा? व्यक्ति, समाज, प्रशासन और सरकार सभी को विचार करना होगा, निर्णय लेना होगा और कार्रवाई करनी होगी। सबसे आसान है नियति को दोष देकर आगे बढ़ जाना; पर मानवता उससे कहीं बड़ा प्रश्न पूछती है कि क्या 25 जीवनों का मूल्य केवल शोक के कुछ शब्दों में सिमट सकता है या हम उनका कर्ज जिम्मेदारी बनकर चुकाएँगे।
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता एवं स्वतंत्र लेखक हैं)
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हिन्दुस्थान समाचार / डॉ. मयंक चतुर्वेदी

