देश के तानाशाही हुकूमत का एक आपात काल

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जब देश आजाद हुआ था, तो देश में राजनीतिक पार्टी के रूप में कांग्रेस की एक तरफा हुकूमत थी. वैसे इतिहास के पन्नों को खंगालेंगे तो पूरी कहानी समझ में आ जाएगी. तानाशाह कांग्रेस की हकीकत का पर्दाफाश हुआ 1975 के आपातकाल से. कांग्रेस के गठन का उद्देश्य तत्कालीन भारतीय स्वतंत्रता सेनानी को अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ एक मंच प्रदान करना था, जिससे स्वतंत्रता की हुंकार भरी जा सके, देश को आजाद कराया जा सके. सही मायने में ए ओ ह्यूम के कांग्रेस गठन का उद्देश्य सेफ्टी वाल्व प्रदान करना था, जिससे आजादी की मांग करने वाले सेनानियों को कांग्रेस के दंश में दबाया जा सके और गोरे अंग्रेज मौज से भारत पर राज कर सके. गांधी जी जब अफ्रीका से लौटे, तो 1885 में गठित कांग्रेस 1907 आते-आते दो धड़ों में बंट चुका था. नरम दल और गरम दल में. 1913 के करीब गांधी जी ने देश की स्वतंत्रता में अपनी हुंकार भरी. 1916 के कांग्रेस अधिवेशन में गरम दल और नरम दल को एक किया. गांधी जी की इस पहल की वजह से कांग्रेस में गांधी जी को एक पहचान मिली. इतिहास को बहुत गहराई तक कुरेदे बिना बात आजादी से शुरू करना चाहूंगा. 1947 में देश आजाद हुआ. गांधी जी ने कांग्रेस की सत्ता का उत्तरदायित्व जवाहरलाल नेहरू को सौंप दिया. गांधी जी की मंशा तो यही थी कि कांग्रेस को भंग कर दिया जाये. वजह, कांग्रेस के गठन का उद्देश्य बस आजादी दिलाना था. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. सत्ता के लोभी नेहरू ने आजादी के लिये गठित कांग्रेस को एक राजनीतिक पार्टी के रूप में स्थापित कर दिया. स्वतंत्र भारत के प्रधानमंत्री के रूप में इंदिरा गांधी का प्रादुर्भाव 1966 में हुआ. इंदिरा गांधी का स्वभाव कुछ तानाशाही था, विपक्ष में मौजूद किसी राजनीतिक पार्टी का सरकार से सवाल जबाब इंदिरा गाँधी को विचलित करता था. सत्ता में एक तरफ़ा हुकूमत की मंशा रखने वाली इंदिरा गाँधी को 1967 में हुये लोकसभा चुनाव में करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा. इंदिरा जी को अहसास हो गया कि जनता हमसे नाराज है, साथ ही साथ उनका अपना खेमा भी उनसे नाराज है. ऐसे में कुटिल नीति की चतुर राजनेता इंदिरा जी को अहसास हो गया कि मेरी शक्ति कमजोर पड़ रही है. इसे बस एक ही उपाय से बढ़ाया जा सकता था, वह था संविधान में संशोधन कर के. 1971 के चुनाव आये और भारतीय राजनीति में पहली बार संविधान संशोधन और भूमि सुधार मुख्य मुद्दा बना. 1971 का लोकसभा चुनाव आया. इंदिरा को पुनः सत्ता मिली. अब यहीं से शुरू होती है, इंदिरा जी के तानाशाही हुकूमत की कहानी.

आपातकाल लगाने की वजह

1971 में लोकसभा चुनाव संपन्न हुआ, जिसमें इंदिरा जी ने अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी राज नारायण को पराजित किया. लेकिन चुनाव परिणाम आने के चार साल बाद राज नारायण ने हाईकोर्ट में चुनाव परिणाम को चुनौती दे दी. 12 जून, सन् 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के तत्कालीन न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी के चुनाव को निरस्त कर दिया और उन पर छह साल तक चुनाव न लड़ने का प्रतिबंध लगा दिया. और इंदिरा गांधी के कट्टर प्रतिद्वंदी राजनारायण सिंह को चुनाव में विजयी घोषित कर दिया. 25-26 जून की आधी रात को आपातकाल के आदेश पर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के दस्तखत ने देश में आपातकाल लागू कर दिया. अगली सुबह समूचे देश ने रेडियो के माध्यम से इंदिरा गांधी की आवाज में संदेश सुना कि भाइयों और बहनों, राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है. लेकिन इससे सामान्य आम जनता को डरने की जरूरत नहीं है. राजनारायण सिंह की दलील थी कि इंदिरा गांधी ने चुनाव में सरकारी मशीनरी तंत्र का दुरुपयोग किया. साथ ही साथ निर्धारित सीमा से ज्यादा पैसा खर्च किया और मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए गलत तरीकों का इस्तेमाल किया. जाँच के बाद अदालत ने इन आरोपों को सही ठहराया. इसके बाद भी श्रीमती गांधी ने इस्तीफा देने से साफ मना कर दिया. तब कांग्रेस पार्टी ने भी बयान जारी किया कि इंदिरा गांधी का नेतृत्व पार्टी के लिए जरुरी है. इसी दिन गुजरात में कांग्रेस से मोर्चा सम्भाले चिमनभाई पटेल के विरुद्ध विपक्षी जनता मोर्चे को भारी विजय मिली. इस दोहरी चोट से इंदिरा गांधी बौखला गयी. तानाशाही इन्दिरा गांधी ने अदालती निर्णय को मानने से इनकार कर दिया और सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने की घोषणा करते हुये 26 जून को आपातकाल लागू करने की घोषणा कर दी. तत्कालीन समय में आकाशवाणी से रात के एक समाचार बुलेटिन में यह प्रसारित किया जाता है कि अनियंत्रित आंतरिक स्थितियों के कारण सरकार ने पूरे देश में आपातकाल की घोषणा कर दी है. आकाशवाणी से प्रसारित होने वाले कार्यक्रम में अपने संदेश में इंदिरा गांधी ने कहा था, 'जब से मैंने आम आदमी और देश की महिलाओं के फायदे के लिए कुछ प्रगतिशील कदम उठाए हैं,उसी समय से मेरे खिलाफ गहरी साजिश रची जा रही थी. आपातकाल के समय जनता के सभी मौलिक अधिकारों को स्थगित कर दिया गया था. सरकार के खिलाफ होने वाले भाषणों और किसी भी प्रकार के प्रदर्शन पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया था.

आपात काल के दौरान सरकार के पास थे असीमित अधिकार

आपातकाल के दौरान तत्कालीन सत्ताधारी कांग्रेस ने आम आदमी की आवाज को हे संभव कुचलने की निरंकुश कोशिश की. इसका आधार वो प्रावधान था, जो अनुछेद-352 के तहत सरकार को असीमित अधिकार देता है. इंदिरा जी जब तक मन हो सत्ता में रह सकती थीं. लोकसभा-विधानसभा के लिए चुनाव की जरूरत नहीं थी. मीडिया और अखबार आजाद नहीं थे. सरकार कैसा भी कानून पास करा सकती थी.

मीसा-डीआईआर का कहर

मीसा और डीआईआर के तहत देश भर में एक लाख से ज्यादा लोगों को जेलों में बंद कर दिया गया. आपातकाल के खिलाफ आंदोलन के महानायक जय प्रकाश नारायण की किडनी कैद के दरमियान खराब हो गई थी. उस काले दौर में जेल की यातनाओं की दहला देने वाली कहानियां इतिहास के काले पन्ने में दर्ज है. देश के सभी बड़े नेताओं को सलाखों के पीछे डाल दिया गया. एक तरह से जेलें राजनीतिक पाठशाला बन गईं. बड़े नेताओं के साथ देश में पनप रहे युवा नेताओं को जेल में बहुत कुछ सीखने-समझने का मौका मिला. एक तरफ नेताओं की नई नस्लें राजनीतिक सांठ-गांठ सीख रही थी, दूसरी तरफ देश को इंदिरा के बेटे संजय गांधी अपने दोस्त बंसीलाल, विद्याचरण शुक्ल और ओम मेहता की तिकड़ी के जरिए चला रहे थे. इंदिरा के बेटे संजय ने आनन फानन में वीसी शुक्ला को नया सूचना प्रसारण मंत्री बनवाया दिया, जिन्होंने मीडिया पर सरकार की इजाजत के बिना कुछ भी लिखने-बोलने पर पाबंदी लगा दी. जिसने भी सरकार की बात मानने से इनकार किया उसे जेलों में डाल दिया गया. संजय गांधी का पांच सूत्रीय कार्यक्रम एक तरफ देशभर में सरकार के खिलाफ बोलने वालों पर बेइन्तहा जुल्म जा रहा था. दूसरी तरफ संजय गांधी ने देश को आगे बढ़ाने के नाम पर पांच सूत्रीय एजेंडे में काम करना शुरू कर दिया. पहला परिवार नियोजन, दूसरा दहेज प्रथा का खात्मा, तीसरा वयस्क शिक्षा, चौथा पेड़ लगाना और अंतिम जाति प्रथा उन्मूलन. इतिहास के पन्नों में दर्ज है कि सुंदरीकरण के नाम पर संजय गांधी ने एक ही दिन में दिल्ली के तुर्कमान गेट की झुग्गियों को साफ करवा डाला, लोगों की जबरदस्ती नसबंदी कराई गई. 19 महीने के दरमियान देश भर में करीब 83 लाख लोगों की जबरदस्ती नसबंदी करा दी गई. सुनने में ये भी जाता है कि पुलिस बल गांव के गांव घेर लेते थे और पुरुषों को पकड़कर उनकी नसबंदी करा दी जाती थी.

आपातकाल की योजना का तैयार था खाका

इमरजेंसी के लंबे वक्त के बाद एक साक्षात्कार में इंदिरा ने कहा था कि उन्हें लगता था कि भारत को शॉक ट्रीटमेंट की जरूरत है. 8 जनवरी 1975 को सिद्धार्थ शंकर ने इंदिरा को एक चिट्ठी में आपातकाल की पूरी सुनियोजित योजना भेजी थी. चिट्ठी के अनुसार आपातकाल की योजना तत्कालीन कानून मंत्री एच आर गोखले, कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ और बांबे कांग्रेस के अध्यक्ष रजनी पटेल के साथ उनकी बैठक में बनी थी. आपातकाल के माध्यम से इंदिरा गांधी जिस विरोध को शांत करना चाहती थीं, उसी ने 19 महीने में देश का बेड़ागर्क कर दिया. इंदिरा के बेटे संजय गांधी और उनकी तिकड़ी से लेकर सुरक्षा बल और नौकरशाही सभी पूरी तरह से निरंकुश हो चुके थे. एक बार मीडिया को दिए गयें इंटरव्यू में इंदिरा गांधी ने कहा था कि आपातकाल लगने पर विरोध में कुत्ते भी नहीं भौंके थे, लेकिन 19 महीने में उन्हें गलती और लोगों के गुस्से का एहसास हो गया. 18 जनवरी 1977 इंदिरा ने अचानक से मार्च महीने में ही लोकसभा चुनाव संपन कराने का ऐलान कर दिया. 16 मार्च को हुए एतिहासिक चुनाव का जब परिणाम आया तो इंदिरा और संजय दोनों ही हार गए. 21 मार्च को देश के लिये कलंक के रूप में जाने जाना वाला आपातकाल तो खत्म हो गया, लेकिन अपने पीछे लोकतंत्र का सबसे बड़ा सबक छोड़ गया.