सनातन का अंग है सिख धर्म

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सिख धर्म को लोग हिन्दू धर्म से लोग अलग मानकर दूसरे नजरिये से देखते है ,जो उचित नहीं है. सिख धर्म की आधारशिला हिन्दू धर्म की रक्षा के लिये रखा गया था। गुरु परम्परा में अंतिम गुरु गुरु गोबिंद सिंह जी की आज जयंती है.जिसे प्रकाश पर्व के रूप में भी मनाया जाता है. आइये जानते है,गुरु गोबिंद सिंह जी के बारे में गुरु गोविन्द सिंह जी का सिख समुदाय के विकास में बहुत बड़ा हाथ है।गुरु नानक जी सिख धर्म के संस्थापक थे. पर सिख धर्म के आगे ले जाने में गुरु गोबिंद सिंह का बड़ा हाथ था. जैसे उन्होंने सैन्य लोकाचार को शुरू किया जिसमें कुछ पुरुष सिखों को हर समय तलवारों को साथ रखने को कहा गया। सिख समुदाय में वे आखरी सिख गुरु थे और उन्हें इसी कारण परम गुरु, गुरु ग्रन्थ साहिब के नाम से जाना जाता है। गोबिंद सिंह अपने पिता गुरु तेग बहादुर और माता गुजरी के एक मात्र पुत्र थे। उनका जन्म 22 दिसम्बर, 1666, को पटना साहिब, बिहार, भारत में हुआ था। उनके जन्म के समय उनके पिता बंगाल और असम में धर्म उपदेश देने के लिए गए हुए थे। उनका जन्म नाम गोबिंद राय रखा गया था। उनके जन्म के बाद वे पटना में वे चार वर्ष तक रहे. और उनके जन्म स्थान घर का नाम “तख़्त श्री पटना हरिमंदर साहिब” के नाम से आज जाना जाता है। 670 में उनका परिवार पंजाब वापस लौट आये। उसके बाद मार्च 1672 में वे चक्क ननकी चले गए जो की हिमालय की निचली घाटी में स्थित है। वहां उन्होंने अपनी शिक्षा ली। चक ननकी शहर की स्थापना गोबिंद सिंह के पिता तेग बहादुर जी ने किया था जिसे आज आनंदपुर साहिब के नाम से जाना जाता है। उस स्थान को 1665 में उन्होंने बिलासपुर(कहलूर) के शसक से ख़रीदा था। अपनी मृत्यु से पहले ही तेग बहादुर ने गुरु गोबिंद जी को अपना उत्तराधिकारी नाम घोषित कर दिया था। बाद में मार्च 29, 1676 में गोबिंद सिंह 10वें सिख गुरु बन गए। यमुना नदी के किनारे एक शिविर में रह कर गुरु गोबिंद जी ने मार्शल आर्ट्स, शिकार, साहित्य और भाषाएँ जैसे संस्कृत, फारसी, मुग़ल, पंजाबी, तथा ब्रज भाषा भी सीखीं। सन 1684 में उन्होंने एक महाकाव्य कविता भी लिखा जिसका नाम है “वर श्री भगौती जी की”  यह काव्य हिन्दू माता भगवती/दुर्गा/चंडी और राक्षसों के बीच संघर्ष को दर्शाता है। गुरु गोबिंद सिंह जी का नेतृत्व सिख समुदाय के इतिहास में बहुत कुछ नया सा लेकर आया। उन्होंने सन 1699 में बैसाखी के दिन खालसा  जो की सिख धर्म के विधिवत् दीक्षा प्राप्त अनुयायियों का एक सामूहिक रूप है उसका निर्माण किया। सिख समुदाय के एक सभा में उन्होंने सबके सामने पुछा – कौन अपने सर का बलिदान देना चाहता है? उसी समय एक स्वयंसेवक इस बात के लिए राज़ी हो गया और गुरु गोबिंद सिंह उसे तम्बू में ले गए और कुछ देर बाद वापस लौटे एक खून लगे हुए तलवार के साथ। गुरु ने दोबारा उस भीड़ के लोगों से वही सवाल दोबारा पुछा और उसी प्रकार एक और व्यक्ति राज़ी हुआ और उनके साथ गया पर वे तम्बू से जब बहार निकले तो खून से सना तलवार उनके हाथ में था। उसी प्रकार पांचवा स्वयंसेवक जब उनके साथ तम्बू के भीतर गया, कुछ देर बाद गुरु गोबिंद सिंह सभी जीवित सेवकों के साथ वापस लौटे. और उन्होंने उन्हें पंज प्यारे या पहले खालसा का नाम दिया। उसके बाद गुरु गोबिंद जी ने एक लोहे का कटोरा लिया और उसमें पानी और चीनी मिला कर दुधारी तलवार से घोल कर अमृत का नाम दिया। पहले 5 खालसा के बनाने के बाद उन्हें छठा खालसा का नाम दिया गया. जिसके बाद उनका नाम गुरु गोबिंद राय से गुरु गोबिंद सिंह रख दिया गया। उन्होंने क शब्द के पांच महत्व खालसा के लिए समझाया और कहा – केश, कंघा, कड़ा, किरपान, कच्चेरा। साथ ही गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा योद्धा के लिए कुछ नियम तैयार किये जैसे वे कभी भी तंबाकू नहीं उपयोग कर सकते। बलि दिया हुआ मांस नहीं खा सकते। किसी भी मुस्लिम के साथ किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं बना सकते। उन लोगों से कभी भी बात ना करें जो उनके उत्तराधिकारी के प्रतिद्वंद्वी हैं। गुरु गोबिंद सिंह द्वारा लड़ाई किये हुए कुछ मुख्य युद्ध यह कहा जाता है कि गुरु गोबिंद सिंह नें कुल चौदह युद्ध किया. परन्तु कभी भी किसी पूजा के स्थल के लोगों को ना ही बंदी बनाया या क्षतिग्रस्त किया। भंगानी का युद्ध (1688) नादौन का युद्ध (1691) गुलेर का युद्ध  (1696) आनंदपुर का पहला युद्ध (1700) अनंस्पुर साहिब का युद्ध  (1701) निर्मोहगढ़ का युद्ध  (1702) बसोली का युद्ध  (1702) आनंदपुर का युद्ध (1704) सरसा का युद्ध  (1704) चमकौर का युद्ध (1704) मुक्तसर का युद्ध (1705) परिवार के लोगों की मृत्यु कहा जाता है सिरहिन्द के मुस्लिम गवर्नर ने गुरु गोबिंद सिंह के माता और दो पुत्र को बंदी बना लिया था। जब उनके दोनों पुत्रों ने इस्लाम धर्म को कुबूल करने से मना कर दिया तो उन्हें जिन्दा दफना दिया गया। अपने पोतों के मृत्यु के दुःख को ना सह सकने के कारण माता गुजरी भी ज्यादा दिन तक जीवित ना रह सकी और जल्द ही उनकी मृत्यु हो गयी। मुग़ल सेना के साथ युद्ध करते समय 1704 में उनके दोनों बड़े बेटों की मृत्यु हो गयी। ज़फरनामा गुरु गोबिंद सिंह ने जब देखा कि मुग़ल सेना ने गलत तरीके से युद्ध किया है और क्रूर तरीके से उनके पुत्रों का हत्या कर दिया तो हथियार डाल देने के बजाये गुरु गोबिंद सिंग ने औरन्ज़ेब को एक जित पत्र “ज़फरनामा” जारी किया। बाद में मुक्तसर, पंजाब में दोबारा गुरु जी ने स्थापित किया और अदि ग्रन्थ  के नए अध्याय को बनाने के लिए खुद को समर्पित कर दिया जो पांचवें सिख गुरु अर्जुन द्वारा संकलित किया गया है। उन्होंने अपने लेखन का एक संग्रह बनाया है जिसको नाम दिया दसम ग्रन्थ और अपना स्वयं का आत्मकथा जिसका नाम रखा है बचितर नाटक. गुरु गोबिंद सिंह जी की मृत्यु  सेनापति श्री गुर सोभा के अनुसार गुरु गोबिंद सिंह के दिल के ऊपर एक गहरी चोट लग गयी थी। जिसके कारण 7 अक्टूबर, 1708 को, हजूर साहिब नांदेड़, नांदेड़ में 42 वर्ष की आयु में उन्होंने अपने शरीर को त्याग दिया।