टूलकिट

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आजकल सीधे साधे लोगों के लिए बड़ी मुश्किल है. परोपकार शब्द को तो डिक्शनरी से ही हटा देना चाहिए. यह पूर्णतः आउटडेटेड हो चुका है. यह कहीं पाया नहीं जाता. अगर कहीं मिलता भी है, तो वह महज संयोग है. इसका वास्तविकता से कोई लेना देना है. अब बेचारी टूलकिट को ही ले लीजिए. क्या नहीं किया इसने. दूसरों की मदद के लिए चौबीस घण्टे तैनात. जाति, धर्म, रंग, अमीर, गरीब में आज तक इसने कभी कोई भेदभाव नहीं किया. लेकिन अफ़सोस... बदले में इसे क्या मिला. आज उसकी खुद की हालत जर्जर है. हर तरफ उसे तिरस्कार और धिक्कार की नजर से देखा जा रहा है. जमाने ने उसे क्या से क्या बना डाला. जब से ट्वीट के साथ टूलकिट मिली है, हंगामा बरपा हुआ है. किट लगाने वाले पकड़े जा रहे हैं. कुछ डर के मारे जमीन के नीचे चले गए हैं. टूलकिट रखना भी अब जुर्म हो गया. ये कैसा डिजिटल इंडिया है. लोग घरों में, गाड़ियों में सदियों से टूलकिट रखते आये हैं. कभी कुछ न हुआ. डिजिलॉकर में डॉक्यूमेंट रख लें, तो कुछ नहीं. लोगों ने ट्विटर पे टूलकिट रख ली तो गुनाह हो गया. जब सरकार खुद सब कुछ डिजिटल करने पर तुली हुई है, तो टूलकिट डिजिटल होने पर क्यों आपत्ति है. हमारे पड़ोसी शर्मा जी तो जबसे सुने हैं, तबसे एकदम सदमे में हैं. बेचारे डर के मारे परसों अपनी गाड़ी और घर में रखे सारे टूलकिट कबाड़ी वाले को बेच दिए. माहौल कुछ ऐसा बन गया है कि खुद टूलकिट भयाक्रांत है. हमारे घर की ही टूलकिट डर के मारे थर थर काँप रही है. डर का लेवल तो तब पता चला, जब किट में कुछ गीलापन सा समझ में आया. बताइये, पूरा डर का माहौल बना दिया है. लेकिन भैया, इधर जो कुछ भी हुआ ठीक नहीं हुआ. टूलकिटों में डर है, तो जबर्दस्त आक्रोश भी है. सब मिल बैठ के मीटिंग किये हैं. आजकल किसी बॉर्डर पे रोड की तलाश में हैं. तलाश पूरी होते ही ये सब भी आंदोलन की फ़िराक में हैं. कायदे का वकील भी ढूंढ रहे हैं. बोले हैं, मानहानि का केस ठोकेंगे. बताओ आदमी नहीं पकड़ पा रहे हैं, तो टूलकिट को ही फँसा दिए. अब कोई इसे साजिश बता रहा है, तो कोई देशद्रोह. दूसरों की बिगड़ी 'दिशा' बनाने वाली टूलकिट भला ऐसा सोच सकती है. एक तो वैसे ही देश में चहुँओर विकास का माहौल है. पहले शाहीनबाग हो ही चुका है. किसान आंदोलन चल ही रहा है. बिकने की कगार पर खड़ी सरकारी संस्थाएं हड़ताल का बिगुल फूँक चुकी हैं. रही सही कसर टूलकिट मामले ने पूरी कर दी है. बाकी सब तो ठीक है लेकिन टूलकिट अगर नाराज हो गई तो विकास के पहिए थमने तय हैं. क्योंकि पहियों के लिए भी तो टूलकिट ही चाहिए.   * यह लेख एक व्यंग्य मात्र है. इसका उद्देश्य किसी व्यक्ति, वस्तु, संस्था या स्थान की छवि बिगाड़ना नहीं है. न ही इसका कोई राजनीतिक मन्तव्य है.