वंदे मातरम् : भारतीय चेतना को ऊर्जा से भर देनेवाला अमर गीत
-डॉ. मयंक चतुर्वेदी
भारत जैसे उत्कट आध्यात्मिक और सांस्कृतिक राष्ट्र में यदि किसी शब्द ने सबसे अधिक ऊर्जा, सबसे अधिक प्रेरणा और सबसे अधिक एकता का संचार किया है, तो वह है “वंदे मातरम्।” किंतु विडंबना यह है कि इसी भूमि पर जन्मे कुछ लोग आज इस राष्ट्रीय गीत को स्वीकार करने में भी हिचकते हैं। यह विरोध वास्तव में कहना चाहिए कि उस भावना का अस्वीकार है जिसने भारत को स्वतंत्रता के पथ पर आगे बढ़ाया और उसके नागरिकों में मातृभूमि के प्रति समर्पण की चेतना भरी।
भारतीय संस्कृति में भूमि को माता मानना किसी धर्म-ग्रंथ का उपदेश नहीं है, यह तो सहस्राब्दियों से चली आ रही जीवनशैली है। जो धरती हमें अन्न देती है, जल देती है, जीवन देती है उसे “मां” कहना स्वाभाविक है। किंतु आज यही सरल, स्वाभाविक भावना कुछ लोगों को अपने मजहबी चश्मे से देखकर भारी लगती है। यह सोच देखा जाए तो सिर्फ तर्कहीन होने तक सीमित नहीं है, इससे राष्ट्र की सामूहिक चेतना तो भी भारी ठेस पहुंचती है।
वंदे मातरम् की रचना से राष्ट्रगीत तक की यात्रा
एक दृष्टि यदि इसके इतिहास पर डालें तो 1870 के दशक में बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने जब वंदे मातरम् की रचना की, तब वे शायद स्वयं भी नहीं जानते थे कि उनकी यह कविता एक दिन भारतीय स्वाधीनता के आह्वान का कारण बन जाएगी। सात नवंबर 1875 को ‘बंगदर्शन’ में प्रकाशित इस गीत को उन्होंने बाद में अपने ऐतिहासिक उपन्यास आनंदमठ में स्थान दिया।
यह गीत साहित्य तक सीमित नहीं रहा, ये सीधे तौर पर मातृभूमि की आराधना है, प्रकृति का उत्सव है और भारतीय अस्मिता का घोष है। इसीलिए ही संविधान सभा ने 1950 में इसे राष्ट्रीय गीत के रूप में स्वीकार करके इसे राष्ट्र चेतना के केंद्र में स्थायी स्थान दिया है। इस एतिहासिक तथ्य को भी नहीं भूलना चाहिए कि 1905 के बंगाल विभाजन ने वंदे मातरम् को वह शक्ति दी, जिसने इसे आंदोलन की धड़कन बना दिया। छात्र, युवा, स्त्रियां, किसान सब इस गीत को गाते हुए ब्रिटिश शासन के विरुद्ध खड़े हुए।
अरविंदो घोष, बिपिन चंद्र पाल, बाल गंगाधर तिलक, यहां तक कि क्रांतिकारी दलों ने भी इसे अपना प्रेरणामंत्र बनाया। कहना होगा कि परतंत्रता के अंधेरे में यही गीत सूर्य सा चमका और भारतीयों को साहस देता रहा। ब्रिटिश सत्ता को डर था कि यह गीत जनांदोलन को विश्वज्वाला बना देगा इसलिए स्कूलों से लेकर सार्वजनिक स्थलों तक इसके गायन पर प्रतिबंध लगाए गए। किंतु क्या साम्राज्य की ताकत एक गीत की शक्ति को रोक सकी? नहीं। जितना दमन हुआ, उतनी ही तेज इसके स्वर उठे।
विश्वमंच पर भारतीय पहचान का घोष है वन्देमातरम्
वर्ष 1907 में मैडम भीकाजी कामा ने जर्मनी के स्टटगार्ट में भारत का पहला तिरंगा फहराया। तिरंगे पर लिखा था “वंदे मातरम्।” वह क्षण तत्कालीन समय में प्रतीकात्मक नहीं रहा था, वह तो भारत की अंतरराष्ट्रीय घोषणा थी कि इस राष्ट्र की चेतना पुकार रही है, वह दबी नहीं है, वह जागृत है और अपनी स्वाधीनता तक अनवरत वह संघर्ष करती रहेगी। किंतु दुर्भाग्य जब पूरी दुनिया में “वंदे मातरम्” भारतीय स्वाधीनता का पर्याय बन चुका था, तभी 1908 में मुस्लिम लीग ने इसे इस्लाम विरोधी बताकर विरोध शुरू किया। तर्क यह दिया गया कि गीत के कुछ छंद देवी-उपासना की ओर संकेत करते हैं।
यह विरोध आगे बढ़ा और 1937 में कांग्रेस ने जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में एक समिति बनाकर गीत की समीक्षा करवाई। मौलाना आजाद ने स्पष्ट कहा कि पहले दो पद किसी मजहबी भावना को नहीं ठेस पहुंचाते। परिणामस्वरूप गीत का संक्षिप्त दो पदों वाला स्वरूप स्वीकार किया गया। किंतु प्रश्न यह है क्या किसी धार्मिक भावना के नाम पर राष्ट्र की भावना को सीमित किया जा सकता है? क्या मातृभूमि को “माता” कहना किसी भी मजहब की कसौटी पर अपराध है?
सेक्युलरवाद का अंधापन
समय बदला, सत्ता बदली, बहसें बदलीं, पर मानसिकता वही रही। आज भी कुछ राजनेता और संगठन इस गीत का विरोध केवल राजनीतिक या सांप्रदायिक पहचान के नाम पर सेक्युलकर चश्मे से करना चाहते हैं। कभी इसे “इस्लाम विरोधी” कहा जाता है, कभी “सेकुलरिज्म के खिलाफ” बताया जाता है। इसी मानसिकता के चलते बिहार विधानसभा से लेकर संसद तक बार-बार विरोध देखने को मिलता है।
मदरसे तक इस पर फतवा जारी कर चुके हैं कि “वंदे मातरम् कहना हराम है।” सवाल उठता है, क्या इस धरती को मां कहना हराम है या वह मानसिकता हराम है जो राष्ट्रभक्ति को मजहबी चश्मे से तौलती है?
वंदे मातरम् एक भावना, पहचान और राष्ट्रीय गौरव का केंद्र है
कहना होगा कि आज 150 साल बाद भी वंदे मातरम् सिर्फ एक कविता नहीं है, यह भारतीयता की जागृत चेतना है, जिसमें संपूर्ण भारत का कण-कण समाया हुआ है। भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, नेताजी सुभाषचंद्र बोस न जाने कितने ही वीरों के कंठों में यह गीत गाया जाता रहा है। यह वह धुन है जिसने एक परतंत्र देश को स्वतंत्रता की राह दिखाई है। यह उन्हें गहराई से समझना होगा जो इसका विरोध करते हैं कि वंदे मातरम् कहने का अर्थ किसी देवी की पूजा करना नहीं है, यह मातृभूमि को प्रणाम करना है। क्या कोई भी धर्म अपनी धरती का सम्मान करने से रोकता है? नहीं।किंतु यदि कोई व्यक्ति इस सरल सम्मान को भी मजहब की दीवारों के भीतर बंद कर देता है, तो वह राष्ट्र की साझा चेतना से कट जाना है। किसी को यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत एक ऐसा देश है, जहाँ मंदिरों से लेकर हर जगह एक ही मिट्टी की खुशबू है। जब वही मिट्टी जीवन का आधार देती है, तो उसे “मां” कहना सांस्कृतिक कृतज्ञता है, धार्मिक अनुष्ठान नहीं।
राष्ट्रगीत का विरोध: राष्ट्रधर्म का अपमान
धार्मिक स्वतंत्रता भारत की विशिष्ट पहचान है, पर राष्ट्रगीत का विरोध धार्मिक स्वतंत्रता नहीं, राष्ट्रचेतना से विमुखता है। ऐसे में आज संसद में हो रही चर्चाएँ सिर्फ इतिहास का पुनरावलोकन नहीं है, यह भावी पीढ़ियों को यह स्मरण दिलाने का अवसर हैं कि देश से प्रेम ही सच्चा राष्ट्रधर्म है। जिसमें कि वंदे मातरम् का विरोध करना इतिहास का भी अपमान है और उन लाखों बलिदानियों का भी, जिन्होंने इसके स्वरों के साथ फांसी के फंदे को हंसते हुए चूमा है। यह गीत हमें जोड़ता है, प्रेरित करता है और यह स्मृति दिलाता है कि हम उस महान भूमि की संतान हैं, जो इस भूमि को मां कहता है। जब यह गीत अपनी 150वीं वर्षगांठ मना रहा है, तब यह हर भारतीय का कर्तव्य है कि वह अपनी व्यक्तिगत या मजहबी सीमाओं से ऊपर उठकर इसके भाव से स्वयं को जोड़े। क्योंकि वंदे मातरम् एक सीमित स्वर से कहीं अधिक व्यापक, एक शाश्वत नाद है, जिसने इस देश को आत्मगौरव और स्वतंत्रता का मार्ग दिखाया है। यही हमारी पहचान है, यही हमारी श्रद्धा। वंदे मातरम्। भारत माता की जय!
(लेखक, फिल्म सेंसर बोर्ड एडवाइजरी कमेटी के पूर्व सदस्य एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / डॉ. मयंक चतुर्वेदी

