जब शिक्षा अभिभावक के लिए आर्थिक बोझ बन जाए, तब गहन विचार जरूरी है!
- युगल किशोर शर्मा
भारत का मध्यम वर्ग हमेशा से अनकहा विश्वास अपने दिल में सँजोए रखता है कि शिक्षा ही उसके बच्चों का भविष्य बदल सकती है। इस वर्ग की पहचान ही इसी उम्मीद से होती रही है कि भले ही आय सीमित हो और खर्च अधिक, किंतु बच्चों की शिक्षा पर कोई समझौता नहीं होगा। पर साल 2025 में सामने आए आंकड़े बता रहे हैं कि जिस शिक्षा को मध्यम वर्ग अब तक अपने सपनों की सबसे सुरक्षित सीढ़ी समझता आया है, वही सीढ़ी इतनी महंगी हो चुकी है कि लाखों परिवार उसके पहले पायदान पर पैर रखने से पूर्व ही हाँफने लगे हैं।
हाल ही में एक चार्टर्ड अकाउंटेंट की लिंक्डइन पोस्ट ने इस चिंता को और तेज कर दिया है। पोस्ट में बताया गया कि एक सामान्य, साधारण निजी स्कूल (किसी प्रीमियम इंटरनेशनल संस्था की बात नहीं) में पहली से बारहवीं तक पढ़ाई कराने में कुल खर्च 20 से 22 लाख रुपए तक पहुँच रहा है। यह राशि सिर्फ फीस नहीं है; इसमें किताबें, यूनिफॉर्म, ट्रांसपोर्ट, स्मार्ट-क्लास, ट्यूशन, गैजेट और आजकल हर घर में अनिवार्य बन चुकी ऑनलाइन शिक्षण सामग्री भी शामिल है। दूसरी ओर बात यदि प्रीमियम स्कूलों में किए जानेवाले खर्च की हो तो यह राशि 35 से 40 लाख तक पहुँच रही है।
चर्टर्ड अकाउंटेंट और टीचर मीनल गोयल की इस लिंक्डइन पोस्ट के अनुसार प्राइमरी स्कूल (कक्षा 1-5) से 5.75 लाख रुपए, मिडिल स्कूल (कक्षा 6-8) से 5.9 लाख रुपए तथा हाई स्कूल (कक्षा 9-12) तक में 9.2 लाख रुपए, इस तरह से कुल खर्च: 20 से 22 लाख रुपए तक हो जाता है। यह एक ऐसा ग्राफ है जो हर साल ऊपर चढ़ रहा है और उस पर मध्यम वर्ग की कमाई का ग्राफ कहीं नीचे ठहर गया है। ऐसे में स्वाभाविक है कि चिंताएँ बढ़ेंगी।
इन चिंताओं को राष्ट्रीय सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) की साल 2024 की रिपोर्ट और भी वैधता देती है। रिपोर्ट कहती है कि पिछले दस वर्षों में शहरी निजी स्कूलों की फीस में 169 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। यह वृद्धि सामान्य महंगाई दर से तो ऊपर है ही औसत वेतन वृद्धि को भी कई गुना पीछे छोड़ देती है। जब आय बढ़ने की रफ्तार 5 से 7 प्रतिशत हो और स्कूल फीस बढ़ने की रफ्तार 15 से 25 प्रतिशत तक पहुँच जाए तब इसका सीधा अर्थ है कि मध्यम वर्ग की आर्थिक नींव लगातार कमजोर होती जाएगी, जिसका कारण कहीं न कहीं अभिभावक का अपने बच्चों की पढ़ाई पर उठाया जा रहा व्यय है।
दिल्ली, बेंगलुरु, पुणे और हैदराबाद में स्थिति और भी गंभीर है। कई अभिभावक बताते हैं कि स्कूल हर साल 10 प्रतिशत से अधिक फीस बढ़ा रहे हैं, जबकि कई स्कूलों ने 25 से 30 प्रतिशत तक वृद्धि कर दी है। दिल्ली सरकार ने निजी स्कूल फीस को नियंत्रित करने के लिए कई नियम बनाए, किंतु विद्यालयों ने उससे बचने के नए रास्ते निकाल लिए डेवलपमेंट फीस, इंफ्रास्ट्रक्चर फीस, एक्टिविटी फीस, टेक्नोलॉजी फीस, स्मार्ट-क्लास चार्ज और न जाने कितने नए नाम से धनराशि वसूली जा रही है। अभिभावक कहते हैं कि फीस कम हो भी जाए तो स्कूल अन्य शुल्क बढ़ा देता है, जिससे कुल राशि पहले से अधिक ही हो जाती है। कई बार तो ऐसा लगता है कि स्कूल बच्चों को पढ़ाने से ज्यादा सुविधाओं के नाम पर आय बढ़ाने में रुचि रखते हैं, जिन सुविधाओं का वास्तविक लाभ बच्चों तक पहुँच भी नहीं पाता।
सबसे चिंताजनक स्थिति उन परिवारों की है जिन्हें कभी कल्पना भी नहीं थी कि उन्हें बच्चों की स्कूलिंग के लिए कर्ज लेना पड़ेगा, लेकिन आज यह वास्तविकता बन चुकी है। कई अभिभावक अपनी आय का 30 से 40 प्रतिशत सिर्फ स्कूल की फीस चुकाने में खर्च कर देते हैं। बाकी पैसा घर का किराया, मेडिकल खर्च और जरूरी चीजों में समेटना पड़ता है। कुछ परिवार अपनी जीवनशैली में बड़ी कटौतियाँ करने को मजबूर हो गए हैं; मनोरंजन, यात्राएँ, बचत, सबकुछ शिक्षा के नाम पर स्थगित कर दिया गया है। यहाँ तक कि ऐसे भी परिवार मिल रहे हैं जो बच्चों को स्कूल न भेजने या अपेक्षाकृत सस्ते विकल्पों पर विचार कर रहे हैं। शिक्षा का महत्व उनके लिए कम नहीं हुआ लेकिन उसकी लागत अब उनकी ताकत से बाहर निकलने लगी है।
यह स्थिति उस बिंदु पर पहुँची है जहाँ शिक्षा का सपना अब प्रेरणा नहीं बल्कि बोझ महसूस होने लगा है। ऐसे में स्वभाविक है कि इस आर्थिक दबाव का असर परिवारों के मानसिक स्वास्थ्य पर भी पड़ रहा है। माता-पिता साल भर ‘अगले महीने की फीस’ के तनाव में जीते हैं। यह तनाव बच्चों तक पहुँचता है और घर का वातावरण प्रभावित करता है। चिंता की बात यह है कि यह समस्या सिर्फ महानगरों तक सीमित नहीं है। छोटे शहरों में भी निजी स्कूल फीस लगातार बढ़ा रहे हैं।
अंततः सवाल यह है कि यदि शिक्षा एक ऐसा आर्थिक बोझ बन जाए जिसके लिए परिवारों को कर्ज में डूबना पड़े या अपनी बुनियादी जरूरतों में कटौती करनी पड़े, तो इसे शिक्षा का विकास नहीं कहा जा सकता। यह सामाजिक असमानता के बढ़ने का संकेत है। जबकि शिक्षा वह सीढ़ी है जिस पर चढ़कर कोई भी परिवार अपनी आर्थिक और सामाजिक स्थिति बदल सकता है। लेकिन यदि वही सीढ़ी इतनी महंगी हो जाए कि मध्यम वर्ग उसका पहला पायदान भी न छू पाए तो यह परिवारों के लिए ही नहीं देश के भविष्य के लिए भी गंभीर खतरा है।
अत: इस संबंध में अब यह आवश्यक हो गया है कि केंद्र एवं राज्य सरकारें, भारत के नीति निर्माता, शिक्षा विशेषज्ञ और समाज मिलकर यह सोचे कि शिक्षा को कैसे फिर से उसके मूल स्वरूप में लौटाया जाए, जहां वह सभी के लिए समान रूप से अपनी योग्यता और आर्थिक क्षमता के अनुसार सुलभ, समावेशी और सभी के लिए समान रूप से देने के लिए उपलब्ध हो सके। क्योंकि यदि शिक्षा ही हाथ से निकल जाए तो भविष्य का सपना भी धीरे-धीरे खोने लगता है। ऐसे में स्वभाविक तौर पर भारत के प्रत्येक मध्यमवर्गीय परिवार की ये गहरी चिंता है, जिसका समाधान हर हाल में निकलना चाहिए।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / डॉ. मयंक चतुर्वेदी

